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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन
भाव से वह सुवर्णघट पीतवर्ण से विद्यमान है। परंतु नीलादिवर्णो से अविद्यमान है। वह पीतघट भी अपर पीतद्रव्य की अपेक्षा एकगुण पीत है। वही पीतघट दूसरे कोई पीतद्रव्य की अपेक्षा द्विगुणपीत है। वही पीतघट तीसरे कोई पीतद्रव्य से त्रिगुणपीत है। इस अनुसार तब तक भी कहा जा सकता है कि यावत् किसी (एकदम हलके पीतवर्णवाले) पीतद्रव्य की अपेक्षा से पीतघट अनंतगुणपीत भी है।
उस अनुसार से वही पीतघट अन्य पीतद्रव्य की अपेक्षा से एकगुणहीनपीत है। दूसरे कोई पीतद्रव्य की अपेक्षा से द्विगुणहीनपीत है - इत्यादि तब तक कहा जा सकता है कि यावत् किसी पीतद्रव्यकी अपेक्षा से अनंतगुणहीनपीत भी पीतघट है। इसलिए इस अनुसार से पीतत्वेन घट के अनंता स्व-पर्याय प्राप्त होते है। पीतवर्ण की तरह तरतमरुप से लाल, नील आदि वर्ण अनंत प्रकार के होते होने से पीतघट की नीलादि अनंतावर्णो से व्यावृत्ति होने के कारण पीतघट की व्यावृत्तिरुप पर-पर्याय भी अनंता है।
इस अनुसार से रसतः भी पीतघट के स्व-मधुरादिरस की अपेक्षा से पीतवर्ण की तरह स्वपर्याय अनंत जानना और जैसे पीतघट के नीलादिवर्ण की अपेक्षा से अनंत परपर्याय पूर्व (पहले) बताये थे, वैसे (मधुरादि रस से भिन्न) क्षारादि अपररसो की अपेक्षा से परपर्याय भी अनंता जानना।
इस तरह से (गन्धतः पीतघट के पर्यायो की विचारणा करे तो) सुरभिगंध की अपेक्षा से भी पीतघट के (पहले की तरह) अनंता स्व-पर पर्याय होते है वह जानना।
इस अनुसार से घट के गुरु-लघु, मृदु-कर्कश, शीत-उष्ण, स्निग्ध-रुक्ष ये आठ स्पर्शो की अपेक्षा से भी तरतमता के योग से प्रत्येक के (पहले रसादि में कहे अनुसार से) अनंता स्वपर्याय होते है वह जानना, क्योंकि सिद्धांतो में कहा है कि एक अनंतप्रदेशवाले स्कन्ध में भी आठ स्पर्श (एकसाथ) प्राप्त होते है। इसलिए यहां घट में भी आठ स्पर्शो का कथन किया है। (और तरतमता से स्वपर्यायो की गिनती अनंत बताई
अथवा सुवर्णद्रव्य में भी अनंतकाल की अपेक्षा से पांचो वर्ण, दोनो भी गंध छः भी रस और आठ भी स्पर्श, ऐसे सभी तरतमता से अनंता स्वपर्याय होते है और वे वे अपर अपर वर्णादि से उस सुवर्णद्रव्य की व्यावृत्ति भी होती है। इसलिए सुवर्णद्रव्य के पर पर्याय भी अनंता ही है।
शब्दतश्च घटस्य नानादेशापेक्षया घटाद्यनेकशब्दवाच्यत्वेनानेके स्वधर्मा घटादितत्तच्छब्दानभिधेयेभ्योऽपरद्रव्येभ्यो व्यावृत्तत्वेनानन्ताः परधर्माः । अथवा तस्य घटस्य ये ये स्वपरधर्मा उक्ता वक्ष्यन्ते च तेषां सर्वेषां वाचका यावन्तो ध्वनयस्तावन्तो घटस्य स्वधर्माः, तदन्यवाचकाश्च परधर्माः । सङ्ख्यातश्च घटस्य तत्तदपरापरद्रव्यापेक्षया प्रथमत्वं द्वितीयत्वं तृतीयत्वं यावदनन्ततमत्वं स्यादित्यनन्ताः स्वधर्माः, तत्तत्सङ्ख्यानभिधेयेभ्यो व्यावृत्तत्वेनानन्ताः परधर्माः । अथवा परमाणुसङ्ख्या पलादिसङ्ख्या वा यावती तत्र घटे वर्तते सा स्वधर्मः, तत्संख्यारहितेभ्यो व्यावृतत्त्वेनानन्ताः परपर्यायाः । अनन्तकालेन तस्य घटस्य
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