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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन पीतत्ववत्स्व पर्याया अनन्ता ज्ञातव्याः, नीलादित्ववत् क्षारादिपररसापेक्षया परपर्याया अप्यनन्ता अवसातव्याः । एवं सुरभिगन्धेनापि स्वपरपर्याया अनन्ता अवसातव्याः । एवं गुरुलघुमृदुखरशीतोष्णस्निग्धरूक्षस्पर्शाष्टकापेक्षयापि तरतमयोगेन प्रत्येकमनन्ताः स्वपरपर्याया अवगन्तव्याः, यत एकस्मिन्नप्यनन्तप्रदेशके स्कन्धेऽष्टावपि स्पर्शाः प्राप्यन्त इति सिद्धान्ते प्रोचानम् - 17 । तेनात्रापि कलशेऽष्टानामभिधानम् 1 अथवा सुवर्णद्रव्येऽप्यनन्तकालेन पञ्चापि वर्णा द्वावपि गन्धी षडपि रसा अष्टावपि स्पर्शाश्च सर्वेऽपि तरतमयोगेनानन्तशो भवन्ति । तत्तदपरापरवर्णादिभ्यो व्यावृत्तिश्च भवति । तदपेक्षयापि स्वपरधर्मा अनन्ता अवबोधव्याः । व्याख्या का भावानुवाद : कालतः जब घडे को स्व- द्रव्य की अपेक्षा से नित्य माना जाता है । तब वह वर्तमान में रहता है । अतीत में था और भविष्य में भी होगा। इसलिए कालतः वह त्रिकालवर्ती होने के कारण उसकी किसीसे भी व्यावृत्ति होती नहीं है। अर्थात् इस तरह से द्रव्य की अपेक्षा से त्रिकालवर्ती होने के कारण ऐसा कोई काल नहीं है कि जिसमें वह रहता न हो। इसलिए त्रिकाल उसका स्व-पर्याय बनेगा और पर- पर्याय कोई नहीं । २०७/८३० उस घट की जब ऐदंयुगीनत्वेन - वर्तमानकालीनत्वेन विवक्षा करने से, वह घट वर्तमानकालीनत्वेन विद्यमान है और अतीत-अनागतकालीनत्वेन अविद्यमान है। अर्थात् वर्तमानकालीनत्वेन सत् है, अतीत-अनागतकालीनत्वेन असत् है । वर्तमानकालीनघट भी इस वर्ष की अपेक्षा से ही सत् है, अतीतादि वर्षो की अपेक्षा से असत् है । इस वर्ष का घट भी वसंतऋतु में उत्पन्न होने के कारण सत् है । परंतु उसके सिवा की अन्य ऋतुओ में उत्पन्न हुआ न होने से उस ऋतुओ में असत् है। वसंतऋतु संबंधी घट भी नवत्वेन (नया होने के कारण) विद्यमान । परंतु पुराणत्वेन (पुराना होने के कारण) अविद्यमान (असत्) है। वह नूतनघट भी अद्यतनत्वेन (आज का होने के कारण) सत् है। परंतु अनद्यतनत्वेन, (बीते हुए कल की अपेक्षा से) असत् है। वह अद्यतनकाल संबंधी घट भी वर्तमानक्षणतया (वर्तमानक्षण की अपेक्षा से) सत् है। परंतु (वर्तमान से अतिरिक्त) अन्यक्षणो की अपेक्षा से असत् है । इस अनुसार से कालतः घट के असंख्य स्व- पर्याय है । क्योंकि एकद्रव्य असंख्यकाल तक अपनी स्थिति में रहता है । अनंतकाल की विवक्षा से तो द्रव्य अनंतकाल तक रहता होने से अनंता भी स्वपर्याय हो सकते है । विवक्षित काल से भिन्नकाल अन्य अनंतकालो से तथा उसमें रहे हुए अनंतद्रव्यो से घट की व्यावृत्ति होती है। इसलिए घट के परपर्याय भी अनंत है। अब भावतः घट की विवक्षा करके अनंतधर्मात्मकता सिद्ध की जाती है 1 (G-17) तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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