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________________ २००/८२३ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन अनित्य है, क्योंकि कौआ काला है।" यह पक्षधर्म से रहित हेतु भी लोक को धर्मी मानके पक्षधर्मता से सहित है, वैसा कहने के लिए संभव है। अर्थात् “लोक" अनित्य शब्दवाला है, क्योंकि उसमें काला कौआ देखने को मिलता है, इसलिए आकाश या काल आदि व्यापक पदार्थो को पक्ष बनाकर किसी में भी पक्षधर्मता की सिद्धि करनी उचित नहीं है। उसी ही तरह से "शब्द अनित्य है। क्योंकि सुनने में आता है।" "यह मेरा भाई है कयोंकि ऐसे प्रकार की आवाज दूसरी तरह से संगत होती नहीं है।" (भाई के बोले बिना आ सकता नहीं है।) "सभी पदार्थ नित्य या अनित्य है क्योंकि वह सत् है।" इत्यादि अनुमानो के श्रावणत्व आदि हेतु सपक्ष में रहते न होने पर भी (अविनाभाव के बल से सत्य होने के कारण) साध्य के गमक होते दिखाई देते है। आप्तवचनाज्जातमर्थज्ञानमागमःG-3, G'उपचारादाप्तवचनं च यथाऽस्त्यत्र निधिः, G-"सन्ति मेर्वादयः । G-अभिधेयं वस्तु यथावस्थितं यो जानीते यथाज्ञानं चाभिधत्ते, स आप्तो G-जनकतीर्थकरादिः ५ इत्युक्तं परोक्षम्, तेन-9 “मुख्यसंव्यवहारेण, संवादिविशदं मतम् । ज्ञानमध्यक्षमन्यद्धि, परोक्षमिति सङग्रहः ।।१।। इति । यद्यथैवाविसंवादि प्रमाणं तत्तथा मतम् । विसंवाद्यप्रमाणं च तदध्यक्षपरोक्षयोः ।।२।।" [सम्मतितर्कटीका, पृ-५९] तत एकस्यैव ज्ञानस्य G-10यत्राविसंवादस्तत्र प्रमाणता, इतरत्र च तदाभासता, यथा G-1"तिमिराद्युपप्लुतं ज्ञानं चन्द्रादावविसंवादकत्वात्प्रमाणं, तत्सङ्ख्यादौ च तदेव विसंवादकत्वादप्रमाणम् । प्रमाणेतरव्यवस्थायाः विसंवादाऽविसंवादलक्षणत्वादिति स्थितमेतत् “प्रत्यक्ष परोक्षं च द्वे एव प्रमाणे" । अत्र च मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलज्ञानानां-12 मध्ये मतिश्रुते परमार्थतः G-13 परोक्षं प्रमाणं, अवधिमनःपर्यायकेवलानि तु प्रत्यक्षंG-14 प्रमाणिमिति ।। व्याख्या का भावानुवाद : (५) आगम प्रमाण : आप्त के वचनो से उत्पन्न हुए पदार्थ के ज्ञान को आगम कहा जाता है। उपचार से आप्त के वचनो को भी आगम कहा जाता है। (क्योंकि उन वचनो के द्वारा ही ज्ञान उत्पन्न होता है। इसलिए कारण में कार्य का उपचार करके आप्त के वचनो को भी आगम कहा है।) जो अभिधेय वस्तु को यथावस्थित जानता है और जिस प्रकार से उसका ज्ञान हुआ है, उसी प्रकार से ही कथन करते है, उसे आप्त कहा जाता है। जैसे कि, माता,पिता, तीर्थंकरादि । "यहाँ धन का भंडार है" यह पिता का कथन तथा "मेरुपर्वत है" - यह तीर्थंकर परमात्मा का कथन, उस वस्तु को यथावस्थित जानकर किया गया होने से, कहे गये वचनो के वे आप्त है। इस तरह से परोक्षप्रमाण कहा गया । इसलिए कहा है कि, “संवादि और विशद ( स्पष्ट) ज्ञान (G-3-4-5-6-7-8-9-10-11-12-13-14) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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