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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक ५५, जैनदर्शन - प्रत्यक्ष है । वह मुख्य ( पारमार्थिक ) और संव्यवहार ऐसे दो प्रकार का है । प्रत्यक्ष से अन्य समस्तज्ञान परोक्ष है । इस अनुसार से ( सामान्यरुप से ) प्रमाणो का संग्रह है ।" तथा “जिस जिस अंश में अविसंवादि है, उस उस अंश में प्रमाण है और जिस जिस अंश में विसंवादि है, उस उस अंश में अप्रमाण है । यह प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनो ज्ञान में जानना । " २०१/८२४ इसलिए एक ही ज्ञान जिस अंश में अविसंवादि हो, उस अंश में ज्ञान की प्रमाणता है। उसके सिवा के (अतिरिक्त) स्थान में अर्थात् जो अंश में विसंवादि हो, वह ज्ञान की प्रमाणाभासता है । जैसे कि, तिमिररोगी को एक चंद्र दो दिखते है । उसका यह द्विचन्द्र का ज्ञान चंद्रअंश में अविसंवादि = यथार्थ है, इसलिए प्रमाण है और वह ज्ञान चंद्र की संख्या में विसंवादि = अयथार्थ होने से अप्रमाण है। 1 प्रमाण की व्यवस्था अविसंवाद से तथा अप्रमाण की व्यवस्था विसंवाद से होती है । इस अनुसार विवेचन से निर्णय होता है कि, प्रत्यक्ष और परोक्ष दो ही प्रमाण है । यहाँ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान, इन पांच ज्ञान में मति और श्रुतज्ञान परमार्थ से परोक्षप्रमाण है और अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान तथा केवलज्ञान परमार्थ से प्रत्यक्ष प्रमाण है (G-15) - तु० पा० प्र० प० । अथोत्तरार्धं व्याख्यायते । " अनन्तधर्मकं वस्तु" इत्यादि । इह प्रमाणाधिकारे प्रमाणस्य प्रत्यक्षस्य परोक्षस्य च विषयस्तु ग्राह्यं पुनरनन्तधर्मकं वस्तु, अनन्तास्त्रिकालविषयत्वादपरिमिता धर्माः-स्वभावाः सहभाविनः क्रमभाविनश्च स्वपरपर्याया यस्मिंस्तदनन्तधर्ममेव स्वार्थे कप्रत्ययेऽनन्तधर्मकमनेकान्तात्मकमित्यर्थः । अनेकेऽन्ता अंशा धर्मा वात्मा स्वरूपं यस्य तदनेकान्तात्मकमिति व्युत्पत्तेः, वस्तु सचेतनाचेतनं सर्वं द्रव्यम्, अत्र अनन्तधर्मकं वस्त्विति पक्षः, प्रमाणविषय इत्यनेन प्रमेयत्वादिति केवलव्यतिरेकी हेतुः सूचितः, अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणत्वाद्धेतोरन्तर्व्याप्त्यैव - 15 साध्यस्य सिद्धत्वात् दृष्टान्तादिभिर्न प्रयोजनम्, यदनन्तधर्मात्मकं न भवति तत्प्रमेयमपि न भवति, यथा व्योमकुसुममिति केवलो व्यतिरेकः, साधर्म्यदृष्टान्तानां पक्षकुक्षिनिक्षिप्तत्वेनान्वयायोगादिति 1 अस्य च तोरसिद्धविरुद्धानैकान्तिकादिदोषाणां सर्वथानवकाश एव प्रत्यक्षादिना प्रमाणेनानन्तधर्मात्मकस्यैव सकलस्य प्रतीतेः । ननु कथमेकस्मिन् वस्तुन्यनन्तधर्माः प्रतीयन्त इति चेत् ? उच्यते, प्रमाणप्रमेयरूपस्य सकलस्य क्रमाक्रमभाव्यनन्तधर्माक्रान्तस्यैकरूपस्य वस्तुनो यथैव स्वपरद्रव्याद्यपेक्षया सर्वत्र सर्वदा सर्वप्रमातृणां प्रतीतिर्जायमानास्ति तथैव वयमेते सौवर्णघटदृष्टान्तेन सविस्तरं दर्शयामः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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