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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन १८७/८१० कहा जाता है।) उस गवय शब्द के वाच्यार्थ को नहीं जाननेवाले नौकरने किसी वनेचर (जंगलवासी) पुरुष को पूछा कि "गवय किस प्रकार का होता है ?" तब उस वनेचरने कहा कि, "जैसे प्रकार की गाय होती है, वैसे प्रकार की गवय होती है।" (इस वाक्य को सुनकर याद रखकर आगे बढे हुए उस नौकर को गाय जैसा पशु जंगल में नजर में आया) उस वक्त उस नौकर को वनेचर ने कहे हुए वाक्य का स्मरण हुआ। (एक जगह पे सुने हुए के अन्यत्र संबंध को अतिदेश कहा जाता है। वनेचर के पास से सुने हुए “गाय जैसी गवय होती है।" वाक्यार्थ का, गाय पशु को देखते ही नौकर को उस अतिदेशवाक्यार्थ का स्मरण होता है। वह) अतिदेश सहकारी ऐसा "गाय जेसी गवय होती है।" यह पिंडज्ञान "यह, उस गवय शब्द से वाच्य अर्थ है" - ऐसी उपमिति फलरुप प्रतिपत्ति को उत्पन्न करता उपमानप्रमाण बनती है। (कहने का मतलब यह है कि अतिदेशवाक्यार्थ के ज्ञानस्वरुप उपमान है। एक स्थान पे सुने हुए का अन्यत्र संबंध को अतिदेश कहा जाता है । वनेचर पुरुष के पास से "गो सदृशो गवयो भवति" इत्याकारक वाक्य को सुनकर (नौकर को जंगल में गाय जैसे पशु को देखने से) उस अर्थ के स्मरण प्रसंग से उसका संबंध होता है। इसलिए वह वाक्य अतिदेशवाक्य कहा जाता है। "गो सदृश गवय" पिंडज्ञान "असौ गवयशब्दवाच्यः" इत्याकारक उपमितिरुप फल को उत्पन्न करता प्रमाण बनता है।) (मीमांसकोने उपमान प्रमाण का स्वरुप अलग रुप से बताया है। वह इस अनुसार से है।) जो व्यक्ति द्वारा गाय उपलब्ध है अर्थात् देखी गई है। "गवय" आज तक देखा नहीं गया तथा "गाय जैसी गवय है" इस अतिदेशवाक्य को भी सुना नहीं है। उस व्यक्ति को विकट जंगल में फिरते फिरते गवय का पहलीबार दर्शन होने पर भी (वर्तमानमें) परोक्ष ऐसी गाय में सादृश्यज्ञान उत्पन्न होता है कि "इस गवय के समान वह गाय है।" अथवा "उस गाय का इस गवय के साथ सादृश्य है।" इसे उपमानप्रमाण कहा जाता है। तथा (गवय को देखकर) जो गाय का स्मरण होता है, वह गाय गवय की समानता से विशिष्ट बनकर उपमान प्रमाण द्वारा मालूम होती है अथवा गाय से विशिष्ट गवय की समानता उपमान प्रमाण का विषय बनती है। अर्थात् गोविशिष्टसादृश्य या सादृश्यविशिष्टगो दोनो उपमान प्रमाण के प्रमेय है। इस वचन से भी उपर की बात सिद्ध होती है। वे दोनो प्रकार के उपमान का परोक्ष प्रमाण के भेदरुप प्रत्यभिज्ञा में समावेश हो जाता है। (कहने का मतलब यह है कि काशी में देखे हुआ देवदत्त को (कुछ समय के बाद) अहमदाबाद में देखने से "यह वही देवदत्त है।" ऐसी प्रत्यभिज्ञा होती है। यहां काशी में देवदत्त का जो प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ था, वह अहमदाबाद में स्मृतिपथ में आने से "यह वही देवदत्त है।" ऐसी प्रत्यभिज्ञा को उत्पन्न करता है। यहाँ जैसे प्रत्यभिज्ञा में प्रत्यक्ष और स्मरण का संकलन होता है, वैसे उपमान में भी गवय का प्रत्यक्ष तथा अतिदेशवाक्य या गाय का स्मरण कारण बनता है और सादृश्यरुप में उनका संकलन किया जाता है। इसलिए प्रत्यक्ष और स्मरण से उत्पन्न होनेवाला तथा सादृश्य को संकलित करनेवाले सादृश्यज्ञान (उपमान प्रमाण का) भी प्रत्यभिज्ञा में समावेश होता है। (इसलिए न्यायकुसुमाञ्जली में कहा है कि... "ततो यः संकलनात्मकः प्रत्ययः स प्रत्यभिज्ञानमेव यथा 'स एवायम्' इति प्रत्ययः संकलनात्मकश्च" "अनेन सदृश गौ इति प्रत्यय इति ।" (अर्थ स्पष्ट है ।) सारांश में, प्रत्यक्ष और स्मरण से उत्पन्न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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