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________________ १८६/८०९ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन पमानार्थापत्त्यादिवत्प्रमाणतामात्मसाक्षात्करोतितदनयोरेवप्रत्यक्षपरोक्षयोरन्तर्भावनीयम् । यत्पुनर्विचार्यमाणं मीमांसकपरिकल्पिताभाववत्प्रामाण्यमेव नास्कन्दति न तेन बहिभूतेनान्तर्भूतेन वा प्रयोजनम्, अवस्तुत्वादित्यपकर्णनीयम् । तथाहि-प्रत्यक्षानुमानागमोपमानार्थापत्त्यभावसम्भवैतिह्यप्रातिभयुक्तयनुपलब्ध्यादीनि प्रमाणानि यानि परे प्रोचुः, तत्रानुमानागमो परोक्षप्रकारावेव विज्ञातव्यौ, F-55उपमानं तु नैयायिकमते कश्चित्प्रेष्यः प्रभुणा प्रेषयाञ्चक्रे “गवयमानय" इति स गवयशब्दवाच्यर्थमजानानः कञ्चन वनेचरं पुरुषमप्राक्षीत् “कीदृग्गवयः" इति, स प्राह “यादृग्गौस्तादृग्गवयः” इति ततस्तस्य प्रेष्यपुरुषस्याप्तातिदेशवाक्यार्थस्मरणसहकारि गोसदृशगवयपिण्डज्ञानं “अयं स गवयशब्दवाच्योऽर्थः” इति प्रतिपत्तिं फलरूपामुत्पादयत्प्रमाणमिति, मीमांसकमते तु येन प्रतिपन्ना गौरुपलब्धो न गवयो न चातिदेशवाक्यं “गौरिव गवय.” इति श्रुतं, तस्य विकटाटवीं पर्यटतो गवयदर्शने प्रथमे समुत्पन्ने सति यत्परोक्षे गवि सादृश्यज्ञानमुन्मज्जति “अनेन सदृशः स गौः" इति “तस्य गोरनेन सादृश्यं” इति वा, तदुपमानम् । “तस्माद्यत्स्मर्यते तत्स्यात्सादृश्येन विशेषितं प्रमेयमुपमानस्य सादृश्यं वा तदन्वितम्" । [मी० श्लोक० उप० श्लो० ३] इति वचनादिति, F-56एतञ्च परोक्षभेदे प्रत्यभिज्ञायामन्तर्भाव्यम् । व्याख्या का भावानुवाद : वैसे ही प्रतिवादियो के द्वारा दो से अतिरिक्त प्रमाण की संख्या मानी गई है। उसमें भी सोचने से अर्थापत्ति, उपमान आदि की तरह प्रमाणकोटी में आते है - प्रमाणभूत सिद्ध होते है, उनका समावेश भी प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रमाण में कर लेना चाहिए । तदुपरांत सोचने से मीमांसको के द्वारा परिकल्पित अभावप्रमाण की तरह, जो प्रमाणभूत ही सिद्ध होते नहीं है। उनका प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण में अन्तर्भाव है या बहिर्भाव है ? वह चर्चा करने का कोई प्रयोजन ही नहीं है। क्योंकि वह तो अवस्तुरुप = अप्रमाणभूत होने से उपेक्षणीय ही है। (अब प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण से अतिरिक्त प्रमाण, जो अन्यदर्शनकारों ने माने है, उनका समावेश भी इन दोनो प्रमाण में ही हो जाता है, वह बताया जाता है .....) परवादियोंने प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव, संभव, ऐतिह्य, प्रातिभ, युक्ति और अनुपलब्धि आदि अनेक प्रमाणो को माना है। इन प्रमाणो में अनुमान और आगम का परोक्ष प्रमाण में ही समावेश हो जाता है। नैयायिक उपमान को प्रमाण मानते है - (उसका आकार वे इस तरह से बताते है-) कोई नौकर अपने स्वामि के द्वारा गवय लाने के लिए भेजा गया। (वह नौकर अपने स्वामि से पूछना भूल गया कि गवय किसे (F-55-56)- तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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