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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन परोक्षज्ञान कहा जाता है। "पर" शब्द के पर्यायवाची "परस्" शब्द से परोक्ष शब्द की सिद्धि होती है । अर्थात् परस् + अक्ष मिलकर परोक्ष बनता है । श्लोक के पूर्वार्ध में दो "च" शब्द का विधान प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनो की तुल्यकक्षा का सूचन करने के लिए है । अर्थात् प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनो पद के पिछे “च” रखने से दोनो, प्रमाणो का बल समान है, वह सूचित करने के लिए है और अपने अपने विषय में प्रमाणभूत है वह भी साथ साथ सूचित होता है। उससे अनुमानादि परोक्ष प्रमाण की प्रत्यक्षपूर्वक प्रवृत्ति होने के कारण कुछ लोग प्रत्यक्ष को ज्येष्ठ मानते है ( और अनुमानादि को कनिष्ठ मानते है ।) वह सत्य नहीं है, वह भी सूचित होता है, क्योंकि दोनो में भी प्रमाणता है। क्योंकि प्रतिविशेष का अभाव है। अर्थात् प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनो भी अपने-अपने विषय में स्वतंत्र तथा समान बलवाले है । उसमें कोई ज्येष्ठ नहीं है । और कनिष्ठ नहीं है। I १८५/८०८ "देखो, मृग दोडता है।" (इस वाक्य को सुनकर उसका अर्थ विचार करके मृग के) प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति भी परोक्ष ऐसे शब्दज्ञानपूर्वक हुई होने से परोक्ष को ज्येष्ठ मानने का प्रसंग आयेगा । 'देखो, मृग दौडता है।' इत्यादि में (मृग का हुआ) प्रत्यक्ष भी परोक्ष ऐसे शब्दज्ञानपूर्वक की प्रवृत्ति से हुआ होने से (अर्थात् प्रत्यक्ष भी परोक्षपूर्वक होने के कारण) परोक्ष को (प्रत्यक्ष से) ज्येष्ठ मानने का प्रसंग आता है। कहने का मतलब यह है कि "देखो, मृग दौडता है" - इस वाक्य को सुनकर उसके अर्थ को सोचकर, जिनको मृग का प्रत्यक्ष होगा, वह शब्दज्ञानपूर्वक हुआ है। अर्थात् परोक्ष ऐसे शब्दज्ञानपूर्वक हुआ है। इसलिए (आपने उपर प्रत्यक्षपूर्वक परोक्ष ज्ञान हुआ होने से प्रत्यक्ष को ज्येष्ठ मानते थे तो) यहां प्रत्यक्षज्ञान परोक्षपूर्वक हुआ होने से परोक्ष को ज्येष्ठ मानने की आपत्ति आपको आयेगी। तदुपरांत, परोक्षज्ञान प्रत्यक्षपूर्वक ही उत्पन्न होता है, ऐसा सर्वत्र कोई एकांत नहीं है। क्योंकि, जीव का साक्षात्कार करनेवाले प्रत्यक्षज्ञान की क्षण में भी अन्यथा - अनुपपन्नता से ग्रहण किये गये श्वासोश्वासादि जीव के लिंग के सद्भाव या असद्भाव से मनुष्य जीवित है या मृत है, ऐसी प्रतीति होती दीखाई देती है। अर्थात् तात्पर्य यह है कि.. जिस क्षण में दूसरो के आत्मा को हम देख रहै है, तब उसी ही समय जीवन के साथ अविनाभाव रखनेवाले श्वासोश्वासादि लिंगो से (जीवन की) सत्ता का तथा श्वासोश्वासादि लिंगो के अभाव में (जीवन की) असत्ता का (मृत्यु का) अनुमान से परिज्ञान होता ही है। इसलिए वह प्रत्यक्ष और अनुमान ज्ञान साथसाथ ही हुए है। (इसलिए प्रत्यक्षपूर्वक ही अनुमान ज्ञान की उत्पत्ति होती है, वैसा कोई एकांतिक नियम नहीं है।) यदि ऐसा न माना जाये तो लोकव्यवहार का अभाव हो जायेगा । इसलिए प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण में कोई ज्येष्ठ-कनिष्ठभाव नहीं है। श्लोक के पूर्वार्ध में "तथा" शब्द है, वह पहले कहे हुए जीवादि नवतत्त्वो के समुच्चय के लिए है। सभी वाक्य सावधारण = निश्चयात्मक होते है । इस न्याय से प्रत्यक्ष और परोक्ष दो ही प्रमाण संमत है । उससे अधिक नहीं वह जानना । यदपि परैरुक्तं द्व्यातिरिक्तं प्रमाणसङ्ख्यान्तरं प्रत्यज्ञायि, तत्रापि यत्पर्यालोच्यमानमु For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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