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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन (५) “व्यवसाय” पद के ग्रहण से संशयात्मक, विपर्ययात्मक, अनध्यवसायरुप ज्ञान का व्यवच्छेद होता है। १८३/८०६ साधक - बाधक प्रमाण के अभाव से अनिश्चित अनेक अंशो के अवगाही ज्ञान को संशय कहा जाता है। जैसे कि यह स्थाणु है या पुरुष है ? ऐसा ज्ञान। "व्यवसायात्मक = निश्चयात्मक" ज्ञान के ग्रहण से संशयात्मकज्ञान की प्रमाणता का व्यवच्छेद होता है । जो आकार में वस्तु रही हुई हो उससे, विपरीत आकार में वस्तु का निश्चय करना वह विपर्यय । जैसे की सीप में रजत का ज्ञान । विपर्ययात्मकज्ञान की प्रमाणता का व्यवच्छेद "व्यवसायि" पद से होता है । जहाँ विशेष का स्पष्टरुप से भान होता नहीं है, परंतु क्या है ? इस प्रकार आलोचनात्मकज्ञान होता है, वह अनध्यवसाय कहा जाता है। जैसे कि, अन्य वस्तु में जिसका चित्त है, वैसे गमन करते हुए व्यक्ति को रास्ते में तृण का स्पर्श होने से "मुजे कुछ स्पर्श हुआ" ऐसा आलोचनात्मक जो ज्ञान होता है, उसे अनध्यवसाय कहा जाता है। ऐसे ज्ञान की प्रमाणता का व्यवच्छेद भी व्यवसायि पद से हो जाता है 1 (६) सांख्योने ज्ञान को प्रकृति का धर्म माना है । प्रकृति में से उत्पन्न होती बुद्धि, जब विषयाकार में परिणत होती है, तब उसे ज्ञान कहा जाता है। इसलिए ज्ञान प्रकृति का धर्म है। प्रकृति अचेतन होने से उनका धर्म ऐसा ज्ञान भी अचेतन है । - सांख्यो के इस मतके निराकरण के लिए “स्व” पद का ग्रहण प्रमाण के लक्षण में किया है। ज्ञान अचेतन नहीं है, परंतु स्वयं प्रकाशित है । " स्वस्य ग्रहणयोग्यः परोऽर्थः स्वपर" इस समास के आश्रय से, भी अर्थात् ऐसा समास करने द्वारा स्वपर का "स्व को ग्रहण करने योग्य पर" ऐसा अर्थ करने से व्यवहारिकजन की अपेक्षा से, जिसको जो प्रकार से जहाँ ज्ञान का अविसंवाद हो, उसको उस प्रकार से वह ज्ञान का प्रामाण्य समजना । स्व-पर का ऐसा अर्थ करने से अपने-अपने योग्य पदार्थो को जाननेवाला संशयादि ज्ञान भी स्वरुप की अपेक्षा से तथा सामान्य वस्तु को जानने की अपेक्षा से कथंचित् प्रमाणरुप है, यह बात सूचित होती है । "जो ज्ञान वस्तु के जिस अंश में अविसंवादि है, वह ज्ञान वस्तु के उस अंश में प्रमाणभूत है ।" ऐसे व्यवहारप्रसिद्ध नियम से संशय, विपर्ययज्ञानादि भी वस्तु के सामान्यअंश में प्रमाण है । = इसलिए धर्मिमात्र की अपेक्षा से स्वरुपमात्र की अपेक्षा से संशय, विपर्यय आदि सर्व ज्ञानमात्र प्रमाणभूत है । इस प्रकार संशयादि ज्ञान की भी प्रमाणता नष्ट होती नहीं है | ॥५४॥ अथ विशेषलक्षणाभिधित्सया प्रथमं तावत्प्रमाणस्य संख्यां विषयं चाह- अब प्रमाण के विशेषलक्षण को कहने की इच्छा से ग्रंथकार श्री प्रथम प्रमाण की संख्या और प्रमाण के विषय को कहते है । ( मू. श्लो.) प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्वे प्रमाणे तथा मते । अनन्तधर्मकं वस्तु प्रमाणविषयस्त्विह ।।५५ ।। श्लोकार्थ : प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे प्रमाण के दो भेद है । अनंतधर्मात्मकवस्तु प्रमाण का विषय है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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