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षड्दर्शन समुचय भाग - २, श्लोक - ५४, जैनदर्शन
के मत का निराकरण "स्व" पद के ग्रहण से होता है ।
(३) बौद्धमत में सर्व वस्तुयें क्षणिक है । क्षणिक वस्तु के प्रथमअक्ष सन्निपातके अनंतर जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह नाम, जाति इत्यादि की कल्पना से रहित होने के कारण निर्विकल्पक कहा जाता है । वह निर्विकल्पकज्ञान के अनंतर वासना के बल से उत्पन्न हुआ सविकल्पकज्ञान संकेतकालदृष्टत्वेन वस्तु ग्रहण करता है। इसलिए ही संकेतकाल से होनेवाला शब्द, प्रयोग में आता है तथा वही शब्दप्रयोग के योग्य निर्विकल्पक ज्ञान के अनंतर वासना से उत्पन्न होता सविकल्पक ज्ञान है। उसका विषय भूत और संतान है । सविकल्पक ज्ञान पूर्वदृष्टत्वेन ही सर्व का निश्चय करता है । बालक भी जब तक पूर्वदृष्टत्वेन स्तन का अवधारण करता नहीं है, तब तक स्तन में मुख रखता नहीं है। इसलिए ही सभी लौकिक व्यवहार इस विज्ञान द्वारा चलता है।
निर्विकल्पक ज्ञान निश्चायक बनता नहीं है, क्योंकि स्व लक्षणमात्र से जन्य है और उसका प्रथमक्षण में ही नाश होता होने से शब्दसंबंध के योग्य नहीं है। इसलिए ही व्यवहारपथ में उपयोगी बनता नहीं है। ऐसे व्यवहारपथ में अनुपयोगी निर्विकल्पकज्ञान को प्रमाणभूत माना नहीं जा सकता ।
“निर्विकल्पकज्ञान के उत्तर में होनेवाले व्यवहारमार्ग में उपयोगी ऐसे सविकल्पकज्ञान की उत्पत्ति, उससे होती होने से वह प्रमाणभूत है।" ऐसा कहोंगे तो निर्विकल्पकज्ञान व्यवहारमार्ग में अनुपयोगी होने से तथा सविकल्पकज्ञान व्यवहारमार्ग में उपयोगी होने से, सविकल्पकज्ञान को ही प्रमाणभूत मानना ज्यादा उचित है । तदुपरांत, आपके मत में सविकल्पक ज्ञान स्वयं अप्रमाणभूत है, तो फिर अप्रमाणभूत ऐसा सविकल्पक ज्ञान किस तरह से निर्विकल्पक ज्ञान की प्रमाणता का व्यवस्थापन कर सकता है ? इसलिए आपकी बात उचित नहीं है । इसलिए प्रमाणभूत ज्ञान व्यवसाय स्वभाववाला ही स्वीकार करना चाहिए, निर्विकल्पक नहीं । इस प्रकार प्रमाण के लक्षण में "व्यवसाय" पद के ग्रहण से बौद्ध की निर्विकल्पक ज्ञान की प्रमाणता का निराकरण होता है ।
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(४) नित्यपरोक्षबुद्धिवादि मीमांसक कुमारिलभट्ट की मान्यता है कि.... "ज्ञानं अतीन्द्रियं ज्ञानजन्यज्ञातृता प्रत्यक्षा तया ज्ञानमनुमीयते ।" ज्ञान अतीन्द्रिय है। ज्ञानजन्य ज्ञातृता प्रत्यक्ष होती है उससे ज्ञान का अनुमान किया जाता है। कहने का मतलब यह है कि, "अयं घटः " ऐसा ज्ञान जब उत्पन्न होता है, तब ही ज्ञान के विषय घट में "ज्ञातता" नाम के पदार्थ की उत्पत्ति होती है। "ज्ञातो घटः " यह प्रतीति ज्ञातता की साधक है। यह ज्ञातता ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय करती है 1
परंतु कुमारिल भट्ट का मत योग्य नहीं है । क्योंकि, जैसे सूर्य की प्रभा से (प्रकाशित होते) घट, पटादि वस्तु के समूह को देखते लोग सूर्य की प्रभा को भी देखते ही है । उस प्रकार ज्ञान के विषय बनते कुंभादि
प्रकाश को माननेवालो के द्वारा ज्ञान का प्रकाश भी स्वीकार करना ही चाहिए। अथवा दीपक का प्रकाश स्वयं को और पदार्थ को प्रकाशित करता है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए। इस प्रकार प्रमाण के लक्षण में "स्व" पद के ग्रहण से मीमांसक के मत का निराकरण होता है ।
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