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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५४, जैनदर्शन १८१/८०४ सामान्यलक्षण के अविनाभावि होता है और सामान्यलक्षण विशेषलक्षण के अविनाभावि होता है। क्योंकि सामान्य और विशेषलक्षण एकदूसरे को परिहार करके नहीं रह सकते है। इसलिए प्रमाण का विशेषलक्षण (कहने से पहले) प्रारंभ में प्रमाण का सामान्यलक्षण सभी जगह पे कहना चाहिए । इसलिए यहाँ भी प्रथम प्रमाण का सामान्यलक्षण कहा जाता है। स्व-पर व्यवसायिज्ञान को प्रमाण कहा जाता है - अर्थात् संशय, विपर्यय आदि के निराकरण करने के स्वभाव द्वारा वस्तु जिससे मालूम होती है, उसे प्रमाण कहा जाता है । अर्थात् “स्व-"अपने (ज्ञानके) स्वरुप का तथा "स्व" से भिन्न परपदार्थ का यथावस्थित निश्चयात्मक ज्ञान जिससे होता है, वह स्व-पर व्यवसायिज्ञान प्रमाण कहा जाता है। जिसके द्वारा वस्तु प्रधानरुप से मालूम होती है - वस्तु का विशेषअंश ग्रहण किया जाता है, इसे ज्ञान कहा जाता है। __ प्रमाण के लक्षण में "ज्ञान" विशेषण के ग्रहण से ज्ञान से, भिन्न अज्ञानरुप, प्रवृत्ति आदि व्यवहार मार्ग में अनुपयोगी, सामान्यमात्र विषयक जैनआगम में प्रसिद्ध दर्शन तथा नैयायिक इत्यादि के द्वारा कल्पित अचेतनात्मक सन्निकर्ष आदि में प्रमाणता का निराकरण होता है। प्रमाण के लक्षण में "व्यवसायि" विशेषण के ग्रहण से बौद्धो के द्वारा प्रमाणभूत माने गये निर्विकल्पक प्रत्यक्षज्ञान की तथा संशय-विपर्यय-अनध्यवसाय की प्रमाणता का व्यवच्छेद होता है। "पर-व्यवसाय" विशेषण के ग्रहण से पारमार्थिक घट-पटादि बाह्यपदार्थों के समूह का अपलाप करनेवाले, मात्र ज्ञान की सत्ता माननेवाले ज्ञानाद्वैतवादि के मत का खंडन होता है। ज्ञान को सर्वथा परोक्ष माननेवाले मीमांसको के, ज्ञान को द्वितीय अनुव्यवसायरुप से प्रत्यक्ष माननेवाले वैशेषिकोके और नैयायिको के तथा अचेतनज्ञानवादियों के (अर्थात् ज्ञान को प्रकृति का धर्म मानकर अचेनत माननेवाले) सांख्यो के कदाग्रह का निग्रह करने के लिए – “स्व-व्यवसाय" पद दिया गया है। । समग्र लक्षणवाक्य नैयायिको इत्यादि के द्वारा परिकल्पित "अर्थोपलब्धि में हेतु बने वह प्रमाण कहा जाता है।" इत्यादि प्रमाण के लक्षणो के व्यवच्छेद के लिए है। (१) नैयायिकोने प्रत्यक्ष के प्रति इन्द्रियार्थसन्निकर्ष की प्रमाणता का स्वीकार किया है। परंतु वह युक्त नहीं है। क्योंकि जैसे घट जड होने से स्वके निश्चय में या पदार्थ के निश्चय में साधकतम होता नहीं है। इस अनुसार से इन्द्रिय और विषय के संबंधरुप सन्निकर्ष भी स्व-निश्चय में या पदार्थ के निश्चय में साधकतम नहीं हो सकता, क्योंकि जड है। नैयायिको की मान्यता के खंडन के लिए प्रमाण के लक्षण में "ज्ञान" पद का ग्रहण किया है। __ (२) "उत्पन्न हुआ ज्ञान एक आत्मा में समवाय संबंध से रहा हुआ, अनंतर समय पर उत्पन्न होते मानसप्रत्यक्ष के द्वारा मालूम होता है। परन्तु स्वरुप से प्रतीत होता नहीं है।" ऐसा मानने वाले नैयायिको Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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