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________________ १६८/७९१ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन वह व्यक्ति दूसरी ही क्षण में परममुक्ति को प्राप्त कर लेता है। यहाँ दोनो स्थानो पे व्यक्ति को बहुतर कायक्लेश नहीं है, स्वल्पशुक्लध्यानरुप स्वल्प तप से ही साध्य सिद्ध होता है। फिर भी इतना याद रखने कि, उस विचित्रफल को देनेवाले कर्मो की शक्ति का संकर (पहले के) बहुतर कायक्लेश से ही साध्य है। अर्थात् पूर्व की उभयअवस्था प्राप्त करने से पहले अनेक प्रकार के तप के उपबृंहक कायक्लेशो से ही मोहनीय आदि कर्म निर्बल होते जाते है। इसलिए उस अवस्था को प्राप्त करने के लिए अर्थात् शक्तिसंकर प्राप्त करने के लिए अनेक कायक्लेशादि करानेवाले उपवासादि अनुष्ठानो में प्रयास करना योग्य ही है। उसके बिना शक्तिसंकर संगत होता नहीं है = प्राप्त होता नहीं है। अर्थात् कायक्लेश करानेवाले बाह्य-अभ्यंतर तप के बिना तप में ऐसे प्रकार की शक्ति आ सकती नहीं है तथा कर्मो में परिवर्तन हो नहीं सकता है। इसलिए अनवच्छिन्न अन्वयी ज्ञानसंतान ही अनेक प्रकार के (बाह्य-अभ्यंतर) तप करने से कर्मो का नाश करके मोक्ष प्राप्त करता है। वह अन्वयी ज्ञानसंतान को अनंतज्ञान-अनंतदर्शन, अनंतचारित्र और अनंतवीर्य इस प्रकार अनंतचतुष्टयवाले स्वरुप की प्राप्ति हो जाती है, वही मोक्ष है। अथात्र दिगम्बराः स्वयुक्तीः स्फोरयन्ति । ननु भवतु यथोक्तलक्षणो मोक्षः, परं स पुरुषस्यैव घटते न त्वङ्गनायाः, तथाहि-न स्त्रियो मोक्षभाजनं भवन्ति, पुरुषेभ्यो हीनत्वात्, F-39नपुंसकवत् । अत्रोच्यते-स्त्रीणां पुरुषेभ्यो हीनत्वं किं चारित्राद्यभावेन १ विशिष्टसामर्थ्यासत्त्वेन २ पुरुषानभिवन्द्यत्वेन ३ स्मारणाद्यकर्तृत्वेन ४ अमहर्दिकत्वेन ५ मायादिप्रकर्षवत्त्वेन ६ वा, तत्र न तावदानः पक्षः क्षोदक्षमः, यतः किं चारित्राभावः सचेलत्वेन १ मन्दसत्त्वतया २ वा, तत्र यद्याद्यपक्षः, तदा चेलस्यापि चारित्राभावहेतुत्वं किं परिभोगमात्रेण १ परिग्रहरूपतया २ वा, यदि परिभोगमात्रेण, तदा परिभोगोऽपि किं वस्रपरित्यागासमर्थत्वेन १ संयमोपकारित्वेन २ वा, तत्र न तावदाद्यः, यतः प्राणेभ्योऽपि नापरं प्रियं, प्राणानप्येताः परित्यजन्त्यो दृश्यन्ते, वस्त्रस्य का कथा ? अथ संयमोपकारित्वेन, तर्हि किं न पुरुषाणामपि संयमोपकारितया वस्त्रपरिभोगः ? । अथाबला एता बलादपि पुरुषैरुपभुज्यन्त इति तद्विना तासां संयमबाधासम्भवो न पुनर्नराणामिति न तेषां तदुपभोग इति चेत् ? तर्हि न वस्त्राञ्चारित्राभावः, तदुपकारित्वात्तस्य, आहारादिवत् । नापि परिग्रहरूपतया,यतोऽस्य तद्रूपता किं मूर्छा हेतुत्वेन १ धारणमात्रेण वा २ अथवा स्पर्शमात्रेण ३ जीवसंसक्तिहेतुत्वेन वा ४, तत्र यद्याद्यः तर्हि शरीरमपि मूर्छायाहेतुर्न वा ? न तावदहेतुः, तस्यान्तरङ्गतत्वेन दुर्लभतरतया विशेषतस्तद्धेतुत्वात् । अथ मूर्छाया हेतुरिति पक्षः, तर्हि वस्त्रवत्तस्यापि किं दुस्त्यजत्वेन १ मुक्त्यङ्गतया वा २, न प्रथमत एव परिहारः ? यदि दुस्त्यजत्वेनेति पक्षः, तदा तदपि किं (F-39)- तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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