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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक ५२, जैनदर्शन क्लेशस्य - १६७ / ७९० कर्मत्वेऽपि तपस्त्वाविरोधात्, व्रताविरोधी हि कर्मनिर्जराहेतुत्वात्तपोऽभिधीयते । न चैवं नारकादिकायक्लेशस्य तपस्त्वप्रसङ्गः, हिंसाद्यावेशप्रधानतया तपस्त्वविरोधात्, अतः कथं प्रेक्षावतां तेन समानता साधुकायक्लेशस्यापादयितुं शक्या, यदपि शक्तिसङ्करपक्षे “स्वल्पेन" इत्यादि प्रोक्तं, तत्सूक्तमेव, विचित्रफलदानसमर्थानां कर्मणां शक्तिसङ्करे सति क्षीणमोहान्त्यसमयेऽयोगिचरमसमये चाक्लेशतः स्वल्पेनैव शुक्लध्यानेन तपसा प्रत्ययाभ्युपगमात्, जीवन्मुक्तेः परममुक्तेश्चान्यथानुपपत्तेः, स तु तच्छक्तिसङ्करो बहुतरकायक्लेशसाध्य इति युक्तस्तदर्थोऽनेकोपवासादिकायक्लेशाद्यनुष्ठानप्रयासः, तमन्तरेण तत्सङ्करानुपपत्तेः, ततः कथञ्चिदनवच्छिन्नो ज्ञानसन्तानोऽनेकविधतपोऽनुष्ठानान्मुच्यते, तस्य चानन्तचतुष्टयलाभस्वरूपो मोक्ष इति प्रतिपत्तव्यम् ।। Jain Education International कायक्लेशः तस्य व्याख्या का भावानुवाद : तथा “कायक्लेश नारकादिकायसंताप की तरह कर्म के फलभूत होने से तपरुप नहीं है । " इत्यादि जो कहा था वह असत्य है। क्योंकि हिंसादि की विरतिरुप व्रत का उपबृंहक (उपकारक) कायक्लेश कर्मरुप में होने पर भी तप के रुप में मानने में विरोध नहीं है। क्योंकि व्रत का अविरोधी कायक्लेश कर्मनिर्जरा का हेतु होने से तप कहा जाता है । इस अनुसार से नारकादिकायक्लेश तप मानने का प्रसंग आता नहीं है । क्योंकि उस कायक्लेश में हिंसादि आवेश की प्रधानता होने से तप मानने में विरोध आयेगा। (अर्थात् हिंसादि का आवेश व्रत का उपबृंहक बनता नहीं है, इसलिए तप माना नहीं जा सकता ।) इसलिए बुद्धिमान किस तरह से साधु के कायक्लेश को नारकादि कायक्लेश के साथ समानता प्रतिपादित करने के लिए समर्थ हो सकेगा ? नहीं हो सकेगा । अर्थात् साधु को व्रतपालन में होते कायक्लेश के साथ नरक के जीवो को होते कायक्लेश की तुलना का काम कोई पंडित कर नहीं सकेगा। वैसे ही आपने जो "तप द्वारा शक्तिसंकर मानकर स्वल्प उपवासादि से ही समस्तकर्मों का क्षय होना चाहिए" इत्यादि कहा था, वह उचित ही है । (वास्तविकता यह है कि...) विचित्रफल देने में समर्थ कर्मो का शक्तिसंकर होने पर ही क्षीणमोह गुणस्थानक के अन्त्यसमय और अयोगीगुणस्थानक के चरमसमय क्लेश के बिना ही शुक्ल ध्यान तप के द्वारा क्रमशः केवलज्ञान तथा मुक्ति को प्राप्त करता है । अर्थात् क्रमश: जीवनमुक्ति और परममुक्ति प्राप्त करता है। तथा विचित्रफल देने में समर्थ कर्मों के शक्ति संकर बिना जीवनमुक्ति या परममुक्ति संगत होती नहीं है। कहने का मतलब यह है कि... जिसका मोहकर्म नष्ट हो गया, वैसे बारहवें गुणस्थानकवर्ती क्षीणमोही व्यक्ति के स्वल्पशुक्लध्यानरुपी तप से विचित्रफल देनेवाले ज्ञानावरणीय आदिकर्मों की शक्ति में परिवर्तन होके संकर- एकरुपता आकर उसका नाश हो जाता है और दूसरी ही क्षण में क्षीणमोही व्यक्ति जीवनमुक्त केवलि हो जाता है तथा जिसके मन-वचन-काया के समस्त व्यापारो का निरोध हुआ है वैसे चौदहवें गुणस्थानकवर्ती व्यक्ति का स्वल्प शुक्लध्यानरुपी तप एक ही क्षण में सर्वकर्म का नाश कर देता है और For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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