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________________ १६६/७८९ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन है? आपके मत में अनुत्पाद भी उत्पाद के विनाशस्वरुप होने से निर्हेतुक है। वह तो अपनेआप उत्पन्न होता है, ऐसा कहोंगे तो अपसिद्धांत का प्रसंग आयेगा। अर्थात् अपसिद्धांत नाम के निग्रहस्थान में आ जाओंगे। "बुद्धदीक्षा से रागादि की उत्पादशक्ति का क्षय होता है।" यह तृतीयपक्ष भी उचित नहीं है, क्योंकि उस शक्ति का क्षय भी अभावरुप होने से निर्हेतुक होने के कारण आपके मत में उसकी उत्पत्ति का विरोध है। अर्थात् शक्ति का क्षय अभावरुप है। अभाव की उत्पत्ति निर्हेतुक होती है। इसलिए उसकी उत्पत्ति मानने में आपका विरोध है। इसलिए तृतीयपक्ष उचित नहीं है। इससे संतान का उच्छेद तथा संतान का अनुत्पाद = उत्पादाभाव पक्ष भी निरस्त होता है। क्योंकि, जैसे क्षण का उच्छेद और क्षण का अनुत्पाद विनाशरुप होने से निर्हेतुक है, वैसे संतान का उच्छेद और संतान का अनुत्पाद दोनो भी अभावरुप होने से निर्हेतुक है। इसलिए कारणो से उसकी उत्पत्ति किस तरह से हो सकती है? (हो ही नहीं सकती।) वैसे ही (आप लोगोने) वास्तविक संतान का स्वीकार ही किया न होने से संतान के उच्छेद करने के प्रयास द्वारा क्या? (अर्थात् जो वस्तु का स्वीकार ही किया नहीं, उसकी उत्पत्ति-विनाश का प्रश्न ही कहां से होगा ?) क्या मरे हुए को मारना कहीं भी दिखाई देता है ? वैसे वास्तविक संतान ही नहीं है, वहां उसके उच्छेद का प्रयास ही किस तरह से होगा? इसलिए संतान उच्छेद स्वरुप मुक्ति होती नहीं है। "निराश्रवचित्तसंतति की उत्पत्ति स्वरुप मोक्ष है और वह प्रव्रज्या के पुरुषार्थ से साध्य है अर्थात् जो चित्तसंतति पहले अविद्या और तृष्णा से संयुक्त थी, वह चित्तसंतति प्रव्रज्यासे अविद्या और तृष्णा से रहित बनती है और वही मोक्ष है। उसके लिए प्रव्रज्या है।" यह पक्ष उचित प्रतीत होता है। केवल आप हमको कहिये कि, वह चित्तसंतति सान्वय है या निरन्वय है ? यदि आप निराश्रवचितसंतति को सान्वय = वास्तविक रुप में पूर्वोतरक्षणो में अपनी सत्ता रखनेवाली मानते हो और उस निराश्रवचित्तसंतति को ही मोक्ष मानते हो, तब तो वह हमको भी मान्य है। इसलिए सिद्धसाधन दोष है। (अर्थात् जिसको प्रतिवादि हम जैन) स्वीकार करते है, वैसे सिद्धपदार्थ को सिद्ध करने के लिए आपने प्रयत्न किया होने से सिद्धसाधनदोष आता है। वैसे प्रकार की सान्वय निराश्रवचित्तसंतति में ही मोक्ष संगत होता है। जो बंधा हुआ हो वही बंधन से छूटता है। जो बंधा हुआ ही न हो, वह मुक्त होता नहीं है। निराश्रवचित्तसंतति को निरन्वय मानने का पक्ष उचित नहीं है, क्योंकि निरन्वयसंतान में अन्य बंधाता है और अन्य छूटता है और इसलिए जो बंधाता है, वह तो मुक्ति के लिए प्रवृत्ति करता ही नहीं है और उसमें कृतनाश तथा अकृताभ्यागम दोष भी पीछे पीछे दोडते आते है। तथा यदुक्तं “कायक्लेशः” इत्यादि, तदसत्यं, F-38हिंसाविरतिरुपव्रतोपबृंहकस्य काय (F-38) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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