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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन १६५/७८८ मुक्त्यर्थं प्रवृत्तिर्न स्यात्, कृतनाशादयश्च दोषाः पृष्टलग्ना एव धावन्ति । व्याख्या का भावानुवाद : किंच, जगत में सभी बुद्धिमान पुरुष कोई भी कार्य में बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति करते है। अर्थात् यह कार्य करने से मुजको कुछ खास लाभ होगा, ऐसे अनुसंधानपूर्वक बुद्धिमान पुरुष कार्य करने के लिए प्रवृत्त होते है। अब आप बतायें कि, आपका मोक्षमार्ग के अभ्यास में प्रवृत्ति करनेवाला तथा "इससे मुजे मोक्ष मिलेगा" - ऐसे अनुसंधानपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाला कौन है ? ऐसा विचार ज्ञानक्षण करेगी? या संतान करेगी ? वह भी आपको बताना चाहिए। ___ यदि आप कहोंगे कि "ज्ञानक्षण तादृश अनुसंधानपूर्वक प्रवर्तित होती है।"-तो वह उचित नहीं है, क्योंकि वह ज्ञानक्षण एकक्षणस्थायी और निर्विकल्पक होने के कारण इतने विचारणारुप व्यापारो को करने के लिए समर्थ नहीं है। (इतना लम्बा विचार तो दस-बीस क्षण तक रहनेवाला सविकल्पक ज्ञान ही कर सकता है।) इसलिए ज्ञानक्षण तादृशअनुसंधानपूर्वक प्रवर्तित होती है, ऐसा कहना संभव नहीं है। __यदि आप ऐसा कहोंगे कि "ज्ञानक्षणरुप संतान तादृश अनुसंधानपूर्वक प्रवृत्ति करती है।" तो वह उचित नहीं है। क्योंकि परस्परभिन्न ज्ञानक्षणरुप संतानियों से अतिरिक्त सत्ता रखनेवाली संतान बौद्धो के द्वारा स्वीकृत नहीं है। तदुपरांत, आपके मत में सर्वपदार्थ क्षणिक है तथा रागादिसंस्कारो का भी दूसरी क्षण मे निरन्वय - निर्मूलविनाश हो जाता है। अर्थात् रागादि का नाश अपनेआप हो जायेगा, उसके योग से मोक्ष भी अपनेआप हो जायेगा, तो फिर मोक्ष के लिए किये जाते पुरुषार्थ व्यर्थ ही है। अर्थात् मोक्ष के लिए की जाती बुद्धदीक्षा व्यर्थ हो जायेगी। क्योंकि आपने रागादि के उपरम (नाश) को ही मोक्ष माना है। उपरम का अर्थ नाश होता है और नाश तो आपके मत में निर्हेतुक है। वह कारणो से होता नहीं है, स्वभाव से ही अपनेआप हो जाता है और इसलिए रागादि का उपरम प्रयास बिना ही सिद्ध है। इसलिए रागादि के क्षय के लिए प्रव्रज्यारुप अनुष्ठानादिप्रयास निष्फल ही है। अच्छा, अब आप हमको बतायें कि... मोक्ष के लिए जो बुद्धदीक्षा ग्रहण की जाती है, उससे क्या होता है? (१) क्या प्राक्तन रागादि क्षण का क्षय किया जाता है या (२) भाविकाल में राग उत्पन्न नहीं होता है? या (३) रागोत्पादक शक्ति का नाश होता है? या (४) संतान का उच्छेद होता है ? या (५) रागादि सन्तति आगे उत्पन्न नहीं होती है ? या (६) निराश्रवचित्तसन्तति उत्पन्न हो जाती है ? उसमें प्रथमपक्ष संगत नहीं है। अर्थात् बुद्धदीक्षा से प्राक्तन रागादि का नाश होता है - यह प्रथमपक्ष संगत होता नहीं है, क्योंकि आपके मत में विनाश निर्हेतुक होने से प्रव्रज्या से रागादि का क्षय उत्पन्न हो नहीं सकता है। "प्रव्रज्या से भाविरागादि का अनुत्पाद होता है।" यह द्वितीयपक्ष भी असुंदर है। क्योंकि उत्पाद के अभाव को ही अनुत्पाद कहा जाता है। वह अनुत्पाद अभावरुप होने से किस तरह से उत्पन्न किया जा सकता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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