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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन
इत्यादि, तत्सूक्तमेव, किंत्वज्ञो जनो दुःखानुषक्तं सुखसाधनं पश्यन्नात्मस्नेहात्सांसारिकेषु दुःखानुषक्तसुखसाधनेषु प्रवर्ततेऽपथ्यादौ च मुर्खातुरवत् हिताहितविवे' चकस्त्वतात्त्विकसुखसाधनमङ्गनादिकं परित्यज्यात्मस्नेहादात्यन्तिकसुखसाधने मुक्तिमार्गे प्रवर्तते, पथ्यादौ चतुरातुरवत् । यदप्युक्तं “मुक्तिमिच्छता" इत्यादि, तदप्यज्ञानविजृम्भितं, F 32 सर्वथाऽनित्यानात्मकत्वादिभावनाया निर्विषयत्वेन मिथ्यारूपत्वात्सर्वथा नित्यादिभावनावन्मुक्तिहेतुत्वानुपपत्तेः । नहि कालान्तरावस्थाय्येकानुसंधातृव्यतिरेकेण भावनाप्युपपद्यते । तथा यो हि निगडादिभिर्बद्धस्तस्यैव तन्मुक्तिकारणपरिज्ञानानुष्ठानाभिसंधिव्यापारे सति मोक्षः, इत्येकाधिकरण्ये सत्येव बन्धमोक्षव्यवस्था लोके प्रसिद्धा । इह त्वन्यः F-33 क्षणो arisन्यस्य च तन्मुक्तिकारणपरिज्ञानमन्यस्य चानुष्ठानाभिसंधेर्व्यापारश्चेति वैयधिकरण्यात्सर्वमयुक्तम् ।
१६२/७८५
व्याख्या का भावानुवाद : ( अब बौद्ध मत का खंडन किया जाता है । )
उत्तरपक्ष (जैन) पूर्व में आपने "ज्ञानक्षण के प्रवाह से अतिरिक्त आत्मा जैसी कोई चीज नहीं है ।" इत्यादि जो कहा था, वह केवल बिना सोचे किया गया प्रलाप ही है। अर्थात् आपने ज्ञानक्षण के प्रवाह को
आत्मा कहा, वह लेशमात्र उचित नहीं है। क्योंकि ज्ञानक्षणप्रवाह से अतिरिक्त मोतीयों में पिरोये गये सूत्रधागे की तरह (पूर्व और उत्तरज्ञानक्षण में) आत्मस्वरुप से अन्वयी (अनुयायी) आत्मा को माना नहीं जायेगा तो कृतनाश और अकृताभ्यागम इत्यादि दोष आ जायेंगे तथा पूर्वोत्तर क्षणो में आत्मस्वरुप में अन्वयी (अनुयायी) आत्मा के बिना (आत्मा को होनेवाला) स्मरण की भी अनुपपत्ति हो जायेगी । ( कहने का मतलब यह है कि ज्ञानक्षणप्रवाह से अतिरिक्त आत्मा की सत्ता का स्वीकार नहिं करोंगे, तो अच्छे या बुरे कार्य जिस ज्ञानक्षण से होते थे, वह ज्ञानक्षण तो नष्ट हो जाने के कारण उन कार्यो के अच्छे या बुरे फल उस ज्ञानक्षण को मिलेंगे नहीं । इसलिए कृतनाशदोष आयेगा । उल्टा वे अच्छे या बुरे कार्यों का फल जिस ज्ञानक्षण में वे कार्य किये नहीं है उस उत्तरज्ञानक्षण को मिलेंगे । इसलिए अकृताभ्यागम (= नहीं किये हुए कार्य का भी फल मिलने स्वरुप अकृताभ्यागम) दोष आयेगा । वैसे ही जो वस्तु का अनुभव हुआ होता है उस वस्तु का कालांतर से स्मरण होता है । परंतु ज्ञानक्षणप्रवाह से अतिरिक्त आत्मस्वरुप से अन्वयीआत्मा का स्वीकार नहीं किया जायेगा, तो आत्मा को अनुभूत वस्तु का स्मरण हो नहीं सकेगा। क्योंकि अनुभव करनेवाली ज्ञानक्षणं तो नष्ट हो गई है । इसलिए स्मरण भी नहि होगा । इस प्रकार, ज्ञानक्षणप्रवाह से अतिरिक्त आत्मा का स्वीकार नहीं करने से कृतनाश, अकृताभ्यागम, स्मरणाभाव इत्यादि दोष आ जाते है ।)
१. विवेकज्ञ.
(F-32-33) - तु० पा० प्र० प० ।
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