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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन " आत्मदर्शीको संसार होता है.." इत्यादि जो विवेचन किया था वह अपेक्षा से सत्य है । फिर भी अज्ञानी = मुर्ख मनुष्य आत्मा के असत् राग (स्नेह) से दुःख मिश्रित सुख के साधन को (अपने सुख का कारण) देखता वह दुःखमिश्रित सांसारिक सुख के साधनो को पाने की प्रवृत्ति करता है। जैसे मुर्ख बिमार मानवी रोग को (बिमारी को) निकालने के लिए अपथ्यादि में प्रवृत्ति करता है, वैसे मुर्ख मनुष्य सुखी होने दुःखमिश्रित सुखो में प्रवृत्ति करता है । जब कि, हिताहित का यथार्थज्ञानी अतात्त्विक (जिसमें वास्तविकता नहीं है ऐसे अत्तात्विक) सुख के साधन ऐसे स्त्री आदि का त्याग करके आत्मा के शुद्ध स्वरुप के राग से (दुःखरहित) आत्यंतिक सुख के साधनरुप मुक्ति मार्ग में प्रवर्तित होता है। जैसे चतुर (दक्ष) रोगी (अपथ्य के त्यागपूर्वक) पथ्य में प्रवृत्ति करता है, वैसे ज्ञानी मनुष्य वास्तविक सुख के साधन ऐसे मोक्षमार्ग में प्रवर्तित होता है। (कहने का मतलब यह है कि, जैसे बिमारी को निकालने के लिए अपथ्य में प्रवृत्ति करना वह मूर्खता है और पथ्य में प्रवृत्ति करना वह चतुरता (दक्षता) है, वैसे अवास्तविक दुःखमिश्रित सुखो में प्रवृत्ति करना वह अज्ञता है और वास्तविक आत्यंतिक सुखो के लिए मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करना वह अभिज्ञता है। इसलिए दुःखमिश्रित सुखो को आत्मा के मिथ्या राग से सुख के कारण मानकर जो मूर्ख मानवी उसको पाने की प्रवृत्ति करता है वह संसार में परिभ्रमण करता है, परंतु विवेकी आत्मा आत्यंतिक सुख के साधनभूत मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करके संसार से पार उतरने का काम करता है ।) १६३ / ७८६ वैसे ही मोक्ष की इच्छावाले आत्मा के लिए अनित्यादि भावनायें आपके द्वारा बताई गई, वह मात्र आपके अज्ञान का विस्तार ही है। क्योंकि सर्वथा अनित्यत्व, अनात्मकत्व इत्यादि भावनायें निर्विषयक होने के कारण मिथ्यारुप है । जैसे सर्वथा नित्यत्वादि की भावना मुक्ति का कारण बनती नहीं है वैसे सर्वथा अनित्यत्वादि भावनाओं में भी मोक्षहेतुता की संगति नहीं है । कहने का मतलब यह है कि, संसार के सभी पदार्थ जब सर्वथा अनित्य नहीं है तब सर्वथा अनित्यत्वादि की निर्विषयक मिथ्या भावनायें मोक्ष में कारण नहीं हो सकती है। (अर्थात् अनित्यत्वादि भावनाओं का विषय संसार के समस्तपदार्थ बन सकते नहीं है, तो उस समस्त पदार्थो को अनित्यादि किस तरह से मान सकते है ?) जैसे संसार के सभी पदार्थ नित्य न होने से नित्यत्वादि की भावनायें निर्विषयक होने के कारण मोक्ष का कारण बनती नहीं है । वैसे सर्वथा क्षणिकत्वादि की भावनायें मोक्ष का कारण नहीं बन सकती है । तदुपरांत, कालांतर से रहनेवाले एक अनुसंधातृ (भावना करनेवाले एक अन्वयी अनुसंधातृ) के बिना भावना भी होती नहीं है। अर्थात् जब तक अनेक क्षणो में रहनेवाले एकभाव को करनेवाला पूर्व और उत्तर का अनुसंधान करनेवाला आत्मा नहीं माना जायेगा, तब तक भावनायें हो सकती ही नहीं है । तथा जो जंजीर इत्यादि से बंधा हुआ है, उसको ही इस बंधनो में से मुक्त होने के कारणो का ज्ञान, बंधन से मुक्त होने की इच्छा और बंधन से मुक्त होने का प्रयत्न होने पर ही बंधन से मुक्त होता है । इसलिए एक अधिकरण होने पर ही बंध - मोक्ष की व्यवस्था लोक में प्रसिद्ध है । अर्थात् जंजीर में बंधी हुई व्यक्ति बंधन से मुक्ति के कारण का ज्ञान, मुक्त होने की इच्छा तथा मुक्ति के लिए प्रयत्न हो, तो ही बंधन से मुक्त हो सकता है। (सारांश में, बद्ध और मुक्त का व्यपदेश एक आत्मा में ही होता है।) इस तरह से बंधन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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