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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन १६१/७८४ का क्षय मानने से अतिव्याप्ति आती है। क्योंकि नरकादि जीवो को उत्कट कक्षा का कायक्लेश होने पर भी सर्वकर्म का क्षय होता नहीं है । अर्थात् नरकादि जीवो में कायक्लेशस्वरुप कारण होने पर भी सर्वकर्मक्षयस्वरुप कार्य दिखता नहीं है, इसलिए अतिव्याप्ति आती है। इसलिए ऐसे विचित्रफल देनेवाले विचित्रशक्तिवाले कर्म का, शरीर को क्लेश देनेवाले तप से किस तरह से क्षय हो? एक रुपवाला कारण अनेकरुपवाली वस्तु को नष्ट नहीं कर सकता है। शंका : तप में ऐसी शक्ति है कि, जिससे उस कर्मो की शक्ति में परिवर्तन करके उसको संकर - एकरुप में बदल देता है। उस एकरुप में सर्वकर्म के क्षय का स्वभाव पैदा होता है। इसलिए एकरुपवाले तपसे भी विचित्रप्रकार की शक्तिवाले कर्म का क्षय होता है। इसलिए सर्वकर्म के क्षय के लिए भावनाओ का आग्रह क्यों रखते हो? समाधान : (टीका में नन्वेवं पद है, उसके स्थान पे तन्नेवं ज्यादा उचित लगता है।) आपकी बात उचित नहीं है। क्योंकि स्वल्प उपवास आदि कायक्लेश से भी सर्वकर्म का क्षय हो जाने की आपत्ति आयेगी। क्योंकि (आपने उपर बताई हुई) शक्ति का सांकर्य = एकरुपता दूसरी तरह से होती नहीं है अर्थात् कहने का मतलब यह है कि, आपने तप और कर्मो की शक्ति के मिश्रण में एक ऐसे प्रकार की शक्ति बताते है कि जिससे विचित्रशक्तिवाले कर्मो की विचित्रता परिवर्तित होके एक रुप में बदल जायेगी, तब तो (हम भी कहेंगे कि..) स्वल्प उपवास आदि कायक्लेश से भी सर्वकर्मो की शक्ति में परिवर्तन होके वे सभी कर्म एकरुप में बदल जायेंगे। (तप द्वारा) एकरुपवाले सर्वकर्म का नाश हो जायेगा। अर्थात् एकरुपवाले तप से तादृश एकरुपवाले कर्म का नाश सहज बन जायेगा। पंरतु वैसा नहीं है। कहा भी है कि, ___ "कर्म के क्षय से मोक्ष होता है। कर्मो का क्षय तप से होता है और यदि तप केवल कायसंताप रुप हो, तो नारकी के जीवो का दारूण दुःख जैसे कर्मो का फल है, वैसे वह भी कर्म का फल ही है, तो किस तरह से कायक्लेश को तप कहा जा सकेगा? क्योंकि केवल कायक्लेश को तप मानोंगे तो नारकी के जीवो के कायक्लेश को भी तप मानना पडेगा। (परंतु वैसा तो आप भी मानते ही नहीं है।) वैसे ही एकरुप तप से विचित्ररुपवाले कर्मो का क्षय तो असंभवित ही है। इसलिए शक्ति का संकर = एकरुपता तथा उस शक्ति के संकर = एकरुपता से सर्वकर्म का क्षय केवल वचन प्रलाप ही है।" ॥१-२॥ इसलिए नैरात्म्यभावना के प्रकर्ष विशेष से चित्त की निक्लेशअवस्था प्राप्त होती है। वही मोक्ष है। अर्थात् "आत्मा नहीं है या संसार निरात्मक है -आत्मस्वरुप नहीं है।" ऐसी नैरात्म्य भावना की प्रकर्षता से चित्त निक्लेश अवस्था को प्राप्त करता है। अर्थात् सर्वकर्म का क्षय होता है। उसे ही मोक्ष कहा जाता है। अत्र प्रतिविधीयते । तत्र यत्तावदुक्तं "ज्ञानक्षणप्रवाह” इत्यादि, तदविचारितविलपितं, ज्ञानक्षणप्रवाहव्यतिरिक्तं मुक्ताकणानुस्यूतसूत्रोपममन्वयिनमात्मानमन्तरेण कृतनाशाकृतागमादिदोषप्रसक्तेः स्मरणाद्यनुपपत्तेश्च । F-3 यत्पुनरुक्तं “आत्मानं यः पश्यति" (F-31) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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