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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन इसलिए कहा है कि "जो आत्मा को ( नित्यत्व आदि स्वरुप में ) देखता है उनको आत्मा में "मैं हूं" इस प्रकार का सदा के लिए स्नेह होता है । आत्मा के स्नेह से उसके सुखो के लिए प्रयत्न करता है। वह सुखो में खुश होता है सुखो की तृष्णा पैदा होती है। उसके योग से होने वाले हिंसादि पापो की उपेक्षा करता है। (इसलिए) तृष्णा के योग से दोषवाले सुखो में भी गुणो को देखता हुआ उन सुखो में खुश होता "ये सुख मेरे सुख के कारण है ।" ऐसी सुखो में अपनेपन की बुद्धि से सुखो के साधनो का ग्रहण करता है। इसलिए जब तक आत्मा का अभिनिवेश है, तब तक संसार है आत्मा होने पर ही आत्मा से भिन्न चीजो में परायेपन की बुद्धि होती है। अर्थात् "यह मेरा और यह पराया " ऐसी बुद्धि होती है। ऐसे स्व-पर के विभाग के कारण राग-द्वेष होते है । उन राग-द्वेष के साथ जुडे हुए सभी दोष (राग-द्वेष के कारण) आ के खडे रहते है । (उससे संसार परिभ्रमण चलता है ।) ॥ १-२-३॥” १६० / ७८३ = इसलिए मुक्ति को चाहनेवाले जीव के द्वारा स्त्री, पुत्र आदि पदार्थो को अनात्म, अनित्य, अशुचिमय और दुःखमय देखने चाहिए और श्रुतमयी = शास्त्राभ्यास या शब्द से होनेवाले परार्थानुमान तथा चिन्तामयी - स्वयं सोचना या स्वार्थानुमान - भावनाओं के द्वारा उपरोक्त विचारो को सतत सोचते रहना चाहिए। इस अनुसार से सोचते सोचते स्त्री आदि पदार्थों के उपर का राग नष्ट हो जाता है। बारबार के अभ्यास से उस पदार्थो के उपर वैराग्य उत्पन्न होता है । वैराग्य द्वारा अविद्या और तृष्णारुप आश्रव से युक्त चित्तसंततिस्वरुप संसार की विनिवृत्ति होती है, संसार का नाश होता है। इस अविद्या - तृष्णा से युक्त चित्तसंततिका नाश ही मोक्ष है । शंका : उपरोक्त स्त्रीआदि पदार्थो के विषय में अनित्यत्वादि की भावना न रखने पर भी अर्थात् तादृश भावना के अभाव में भी कायक्लेश स्वरुप तप से सकलकर्म का नाश होता है और उससे मोक्ष हो जायेगा । तो फिर तादृशभावना रखने की क्या आवश्यकता है ? समाधान : कायक्लेश कर्म के फलस्वरुप होने के कारण तप नहीं है । जैसे नरकादि में काया को संताप हो, तब कायक्लेश होने पर भी उन जीवो को तप नाम का धर्म होता नहीं है । क्योंकि उन जीवो को हुआ कायक्लेश कर्म के फलस्वरुप होने के कारण तपरुप नहीं है और इसलिए कायक्लेशस्वरुप तप से सकलकर्म का क्षय नहीं हो सकेगा। मुक्ति भी नहि हो सकेगी। वैसे ही कर्म विचित्र शक्तिवाला होता है। (उस कर्म के कारण जीवो को अनेक प्रकार के शुभाशुभ फल की प्राप्ति होती है। यदि कर्म को विचित्रशक्तिवाला मानोंगे नहीं तो कोई धनवान, कोई दरिद्र, कोई कूबडा, कोई रुपवान, कोई दुर्भाग्यवाला, कोई सौभाग्यवाला होता है । इत्यादि प्रकार के) विचित्रफल का दान दूसरी तरह से संगत होता नहीं है । अर्थात् कर्म को एक ही प्रकार का माना जाये और विचित्रशक्तिवाला मानने आये, तो कर्म के फल में (उपरोक्त) विविधता नहीं आ सकेगी। परंतु जगत में विविधता दिखाई देती है, वह दूसरी तरह से संगत होती न होने से कर्म को विचित्रशक्तिवाला मानना आवश्यक है। इसलिए कायसंताप मात्र से किस तरह से सर्वकर्म का क्षय हो ? क्योंकि मात्र कायसंताप से सर्वकर्म For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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