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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन
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मानोंगे तो मुक्तात्मा भी रागादि से आच्छादित होने की आपत्ति आयेगी। क्योंकि प्रकृति के धर्म ऐसे रागादि से संसारी आत्मायें और मुक्तात्मायें समानतया भिन्न है। आत्मा प्रकृति से भिन्न होने से चाहे वह मुक्तात्मा हो ! संसारी आत्मा या मुक्तात्मा दोनो प्रकृति से सर्वथाभिन्न होने से प्रकृति के रागादिधर्म संसारी आत्मा को आच्छादित करते है, वैसा मानोंगे तो मुक्तात्मा को भी आच्छादित करेंगे वैसा मानना पडेगा, कि जो आपको इष्ट नहीं है। इसलिए द्वितीय पक्ष भी अयोग्य है।
उपरांत, आपने संसारी आत्मा कर्ता नहीं है, फिर भी उसको भोक्ता के रुप में स्वीकार किया है। वह भी उचित नहीं है। क्योंकि संसारी आत्मा को कर्ता के रुप में अस्वीकार करने में और भोक्ता के रुप में स्वीकार करने में कृतनाश और अकृताभ्यागम इत्यादि दोष आ जायेंगे। कहने का मतलब यह है कि, जो प्रकृतिने कार्य करके पुरुषार्थ किया है, उसका फल उसको नहि मिलेगा। परंतु जिसने कोई पुरुषार्थ किया नहीं है वैसे पुरुष को फल मिलेगा। इसलिए प्रकृति ने किये हुए कर्म का फल प्रकृति को न मिलने से कृतनाश दोष आयेगा । जिसने कोई कर्म किया नहीं है। वैसे पुरुष को फल मिलने से अकृताभ्यागमदोष आयेगा। (ये दोनो दोष इसलिए कहा जाता है कि जगत में जो कर्म करे, उसको फल मिलेगा और जो कर्म न करे, उसको फल मिलता नहीं है। इससे विपरीत दिखाई नहीं देता है। इससे विपरीत बने तब ये दोष पैदा होते है।)
किंच, आप जवाब दिजीये कि प्रकृति और पुरुष का संयोग किसके द्वारा किया गया है ? क्या प्रकृति द्वारा दोनो का संयोग हुआ है कि क्या आत्मा द्वारा उभय का संयोग हुआ है ?
"प्रकृति द्वारा उभय का संयोग हुआ है।" वैसा नहीं माना जा सकता। क्योंकि प्रकृति सर्वगत होने से मुक्तात्मा से साथ भी प्रकृति का संयोग होने की आपत्ति आयेगी। (तदुपरांत, आपके मतमें प्रकृति वंगत होने से सभी पदार्थ के साथ उसका संयोग है। तो प्रकृति संसारी आत्मा के साथ ही संयोग करेंगी और मुक्तात्मा के साथ संयोग नहीं करेंगी, इसमें नियामक कौन है। - ये प्रश्न भी खडा होगा।)
"आत्मा द्वारा उभय का संयोग हुआ है।" ऐसा मानना भी योग्य नहीं है। क्योंकि आत्मा शुद्धचैतन्यस्वरुप है, तो उसको क्यों प्रकृति के साथ संयोग करना पडे ?
आत्मा प्रकृति के साथ संयोग करता है, उसमें कोई हेतु है या नहीं ? वह भी आपको कहना चाहिए।
यदि आप ऐसा कहोंगे कि आत्मा को, प्रकृति को ग्रहण करने में हेतु है। तो वह हेतु क्या आत्मा है या प्रकृति है? तीसरा कोई हेतु तो आप दे नहीं सकते। क्योंकि उन दोनो से अन्य वस्तु का स्वीकार आपने किया ही नहीं है।
"आत्मा को प्रकृति के साथ के संयोग में कारण (हेतु) प्रकृति है।" ऐसा प्रथमपक्ष उचित नहीं है। क्योंकि प्रकृति आत्माके प्रकृति के साथ के संयोग में कारण हो, तो प्रकृति के साथ मुक्तात्मा का भी संयोग क्यों न हो? क्योंकि प्रकृति के संयोग से पहले संसारी आत्मा और मुक्तात्मा दोनो का शुद्धचैतन्यस्वरुप होने के कारण दोनो समान ही है। वैसे ही प्रकृति का संसारी आत्मा के साथ ही संयोग हो और मुक्तात्मा
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