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________________ १५६/७७९ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन के साथ संयोग हो ही नहीं। उसमें कोई नियामक कारण भी नहीं है। इस प्रकार, प्रथमपक्ष उचित नहीं है। ___ "आत्मा के प्रकृति के साथ के संयोग में हेतु आत्मा है।" ऐसा द्वितीयपक्ष उचित नहीं है। क्योंकि आप जवाब दीजिये कि आत्मा के प्रकृति के साथ के संयोग में हेतु बनता आत्मा प्रकृति सहित हेतु बनता है या प्रकृति के सहकार बिना हेतु बनता है ? प्रकृति सहित आत्मा प्रकृति के संयोग में हेतु बनता है, इस प्रथम पक्ष में अनवस्थादोष आता है। क्योंकि "उसका भी प्रकृति के साथ संयोग किस तरह से हुआ? आत्मा से या प्रकृति से?" इस तरह से बारबार कल्पना करने स्वरुप अनवस्था दोष आयेगा। ___ "प्रकृति रहित आत्मा प्रकृति के संयोग में कारण बनता है।" यह द्वितीयपक्ष उचित नहीं है। क्योंकि प्रकृति रहित शुद्धचैतन्यस्वरुपवाला आत्मा क्यों प्रकृति और आत्मा के संयोग में कारण बनेगा? किसी भी तरह से वह संभव नहीं है। शुद्धचैतन्यस्वरुपवाला आत्मा भी उभय के संयोग में हेतु बनता है, उसमें कोई कारण को आगे करोंगे तो पुनः उपर बताये अनुसार अनवस्था आयेगी। इस तरह से "प्रकृति और आत्मा का संयोग सहेतुक है।" इस बात का खंडन हो जाता है। ___ अथ निर्हेतुकः, तर्हि मुक्तात्मनोऽपि प्रकृतिसंयोगप्रसङ्गः । किंच, अयमात्मा प्रकृतिमुपाददानः पूर्वावस्थां जह्यान्न वा । आद्येऽनित्यत्वापत्तिः । द्वितीये तदुपादानमेव दुर्घटम् । नहि बाल्यावस्थामत्यजन् देवदत्तस्तरुणत्वं प्रतिपद्यते । तन्न कथमपि सांख्यमते प्रकृतिसंयोगो घटते ततश्च संयोगाभावाद्वियोगोऽपि दुर्घट एव, संयोगपूर्वकत्वाद्वियोगस्य । किंच, यदुक्तं “विवेकख्यातेः” इत्यादि, तदविचारितरमणीयम् । F-25तत्र केयं ख्यातिर्नाम प्रकृतिपुरुषयोः स्वेन स्वेन रूपेणावस्थितयोर्भेदेन प्रतिभासनमिति चेत् ? सा कस्य, प्रकृतेः पुरुषस्य वा ? न प्रकृतेः, F-2"तस्या असंवेद्यपर्वणि स्थितत्वादचेतनत्वादनभ्युपगमाञ्च । नाप्यात्मनः, तस्याप्यसंवेद्यपर्वणि स्थितत्वात् । तथा यदपि “विज्ञातविरुपाहं" इत्याधुक्तं, तदप्यसमीक्षिताभिधानं, F-27प्रकृतेर्जडतयेत्थं विज्ञानानुपपत्तेः । किंच, विज्ञातापि प्रकृतिः संसारदशावन्मोक्षेऽप्यात्मनो भोगाय स्वभावतो वायुवत्प्रवर्ततां, तत्स्वभावस्य नित्यतया तदापि सत्त्वात् । नहि प्रवृत्तिस्वभावो वायुर्विरूपतया येन ज्ञातस्तं प्रति तत्स्वभावादुपरमत, इति कुतो मोक्षः स्यात् ? तदा तदसत्त्वे वा प्रकृतेर्नित्यैकरूपताहानिः, पूर्वस्वभावत्यागेनोत्तरस्वभावोपादानस्य नित्यैकरूपतायां विरोधात्, परिणामिनि नित्य एव तदविरोधात् । प्रकृतेश्च परिणामिनित्यत्वाभ्युपगमे आत्मनोऽपि तदङ्गीकर्तव्यं, तस्यापि प्राक्तनसुखोपभोक्तृस्वभावपरिहारेण मोक्षे तदभोक्तृस्वभावस्वीकारात्, अमुक्तादिस्वभावत्यागेन मुक्तत्वा (F-25-26-27)- तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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