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________________ १५४/७७७ __षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन नोऽकर्तुरपि भोक्तृत्वेऽङ्गीक्रियमाणे कृतनाशाकृतागमादयो दोषाः प्रसज्यन्ते । किंच, प्रकृतिपुरुषयोः संयोगः केन कृतः किं प्रकृत्योतात्मना वा ? न तावत्प्रकृत्या, तस्याः सर्वगतत्वान्मुक्तात्मनोऽपि तत्संयोगप्रसङ्गः । अथात्मना, तर्हि स आत्मा शुद्धचैतन्यस्वरूपः सन् किमर्थं प्रकृतिमादत्ते ? तत्र कोऽपि हेतुरस्ति न वेति वक्तव्यम् । अस्ति चेत् ? तर्हि स हेतुः प्रकृतिर्वा स्यादात्मा वा ?, अन्यस्य कस्याप्यनभ्युपगमात् । आद्यपक्षे यथा सा प्रकृतिस्तस्यात्मनः प्रकृतिसंयोगे हेतुः स्यात्, तथा मुक्तात्मनः किं न स्यात् ? प्रकृतिसंयोगात्पूर्वं शुद्धचैतन्यस्वरूपत्वेनोभयोरप्यविशेषात् नियामकाभावाञ्च । द्वितीयपक्षे स आत्मा प्रकृत्यात्मनोः संयोगे हेतुत्वं प्रतिपद्यमानः किं स्वयं प्रकृतिसहकृतः सन् हेतुर्भवति तद्वियुक्तो वा ? आद्ये तस्यापि प्रकृतिसंयोगः कथमित्यनवस्था । द्वितीये पुनः स प्रकृतिरहित आत्मा शुद्धचैतन्यस्वरूपः सन् किमर्थं प्रकृत्यात्मनोः संयोगे हेतुत्वं प्रतिपद्यते ? तत्र कोऽपि हेतुर्विलोक्य इति तदेवावर्त्तत इत्यनवस्था । इति सहेतुकः प्रकृत्यात्मन संयोगो निरस्तः । व्याख्या का भावानुवाद : उत्तरपक्ष (जैन): आपने पहले संसारी आत्मा को अज्ञानरुप अंधकार से आच्छादित बताया था । तो हमारा प्रश्न है कि, क्या अज्ञान ही अंधकार है, अर्थात् अज्ञान का नाम ही अंधकार है या अज्ञान और अंधकार दो वस्तुयें है? यदि अज्ञान का नाम ही अंधकार है और अज्ञानी पुरुष प्रकृतिके सुख को अपना सुख मानता है, तो मुक्तात्मा भी अज्ञानी होने से प्रकृति के सुख को अपने का क्यों मानता नहीं है? मुक्तात्मा अज्ञानी इस तरह से है - ज्ञान बुद्धि का धर्म है और बुद्धि प्रकृति के साथ ही मुक्तात्मा में नष्ट हुई है। इसलिए जैसे पुरुष में से प्रकृति का वियोग हुआ है, वैसे बुद्धि का भी वियोग होगा। उसके योग से मुक्तात्मा को भी अज्ञानी मानना पडेगा। क्योंकि वह भी (बुद्धि के वियोग से) अज्ञान नाम के अंधकार से आच्छादित ही है। अर्थात् संसारी आत्मा की तरह मुक्तात्मा भी अज्ञान अंधकार से आच्छादित है। इसलिए संसारी आत्मा की तरह मुक्तात्मा भी अज्ञानी सिद्ध होगा। इसलिए दोनो के बीच कोई फर्क नहि रहेगा, कि जो इष्ट नहीं है। इसलिए प्रथमपक्ष उचित नहीं है। यदि अज्ञान से अंधकार भिन्न है। अर्थात् दो भिन्न वस्तुयें है, तो आप बताये कि कौन से भिन्न अंधकार है ? कि जिससे आच्छादित होके आत्मा अपने मूलस्वरुप को ढक देता है। रागादि तो अंधकार बनकर आत्मा के स्वरुप को आच्छादित नहीं कर सकते है। क्योंकि रागादि आत्मा से अत्यंत अर्थान्तर है। अर्थात् रागादि आत्मा से अत्यंतभिन्न वस्तु है। रागादि प्रकृति के धर्म होने से आत्मा को आच्छादित करने के लिए समर्थ बनते नहीं है। __ यदि रागादि प्रकृति के धर्म आत्मा से अत्यंत भित्र होने पर भी आत्मा को आच्छादित करते है, ऐसा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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