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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक ५२, जैनदर्शन
व्याख्या का भावानुवाद :
पूर्वपक्ष (सांख्य) : शुद्ध चैतन्य स्वरुप पुरुष है । वह पुरुष तिनके को (तृणको) भी टेढा करने के लिए असमर्थ होने से अकर्ता है। वह पुरुष साक्षात् अभोक्ता है । जडप्रकृति के सहारे से पुरुष सक्रिय बनता है। अर्थात् सक्रिय ऐसी प्रकृति के द्वारा पुरुष भोक्ता बनता है। अज्ञानरुपी अंधकार से व्याप्त होने से प्रकृति में रहे हुए सुखादिफल को, अपने आत्मा में प्रतिबिंबित होने के कारण अपना ही मानकर आनंद करता है - पुरुष प्रकृति के सुखस्वभाव को अपना मानते हुए संसार में भटकता है। ( कहने का मतलब यह है कि प्रकृति ही कर्ता है। सुख-दुःखादि स्वभाव प्रकृति के ही है। आत्मा के नहीं है । उस सुखादि का आत्मा साक्षात् भोक्ता बनता नहीं है । परन्तु अज्ञान से व्याप्त आत्मा में (पुरुष में) प्रकृति का प्रतिबिंब पडता है तब प्रकृति के सुखादि स्वभावो को पुरुष अपना मानने लगता है और वैसे भ्रामकसुखादि के लिए संसारचक्र में फिरता रहता है।) परंतु जब पुरुष को भेदज्ञान का आविर्भाव होता है। अर्थात् "इस प्रकृति के विकार मेरे 'दुःखका कारण है । इसके साथ मेरा संसर्ग युक्त नहीं है ।" ऐसे प्रकार की विवेकख्याति से प्रकृति संसर्गयुक्त नहीं है, ऐसे प्रकार की विवेकख्याति से प्रकृति द्वारा संपादित कर्म के फल को पुरुष भुगतता नहीं है । प्रकृति भी " यह पुरुष मुज से विरक्त हुआ है । उसने मुजको कुरुपा मान ली है।" ऐसा मानकर कुष्ठरोगी स्त्री की तरह (स्वयं) पुरुष से दूर सरकती है - दूर रहती है। उसके बाद प्रकृति उपरत होने से पुरुष का स्वरुप में अवस्थान होता है, उसे मोक्ष कहा जाता है। अर्थात् प्रकृति का संसर्ग नाश होने से पुरुष अपने शुद्धचैतन्यस्वरुपमात्र में स्थित हो जाता है। इस स्वरुपावस्थिति को मोक्ष कहा जाता है ।
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पुरुष का स्वरुप चैतन्यमय है । वह चेतनाशक्ति अपरिवर्तनशील है। अर्थात् नित्य है। अप्रतिसंक्रमादर्पण की तरह स्वयं विषयो के आकार से होती नहीं है। परंतु प्रदर्शितविषयवाली (बुद्धि द्वारा) विषयो का प्रदर्शन करती है - और अनंत है । मुक्तात्मा ऐसे प्रकार के शुद्धचैतन्यस्वरुप में अवस्थित होते है । परंतु आनंदादिस्वरुप से नहि, क्योंकि आनंदादि स्वभाव प्रकृति के कार्य है । अर्थात् प्रकृति के स्वभाव है, पुरुष के स्वभाव नहीं है। प्रकृति तो मुक्तजीव की अपेक्षा से नाश हुई होने से, मुक्त पुरुष के उपर उसका अधिकार नाश हुआ है। (अत्र उल्लेखनीय है कि, यहाँ चेतनाशक्ति का स्वरूप हमारे क्षयोपशम अनुसार बताया है I विशेष जिज्ञासुओं को योगभाष्य की तत्त्ववैशारदी टीका से देख लेना। उसका विवेचन योग भा. १/२ में किया है।)
अत्र वयं ब्रूमः । यत्तावदुक्तं “संसार्यात्मा अज्ञानतमश्छन्नतया” इत्यादि, तदसुन्दरम्, यतः किमज्ञानमेव तम उताज्ञानं च तमश्चेति । प्रथमपक्षे मुक्तात्मापि प्रकृतिस्थमपि सुखादिफलं किं नात्मस्थं
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मन्येत, ज्ञानस्य बुद्धिधर्मत्वाद्बुद्धेश्च प्रकृत्या सममुपरतत्वात्, ज्ञानाभावेनाज्ञानतमश्छन्नत्वाविशेषात् । द्वितीयपक्षे तु किमिदमज्ञानादन्यत्तमो नाम ? रागादिकमिति चेत् ?, तन्न, तस्यात्मनोऽत्यन्तार्थान्तरभूतप्रकृतिधर्मतयात्माच्छादकत्वानुपपत्तेः । आच्छादकत्वे वा मुक्तात्मनोऽप्याच्छादनं स्यात्, अविशेषात् । किंच संसार्यात्म
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