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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन
इस अनुसार से है – “आत्मा सुख के स्वभाववाला है । क्योंकि वह अत्यंतप्रिय बुद्धि का विषय है तथा वह दूसरे के लिए नहीं, परंतु अपनी शांति के लिए ग्रहण किया जाता है । जैसे कि, वैषयिक सुख ।” तथा “मुमुक्षु का तप, चारित्र इत्यादि में प्रयत्न सुख के लिए है । क्योंकि बुद्धिमान व्यक्ति का बुद्धिपूर्वक किया गया प्रयत्न है । जैसे कि, किसानो का खेती करने का प्रयत्न ।"
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वह सुख मोक्ष में परमातिशय प्राप्त होता है। वह इस अनुमान से प्रसिद्ध है - "सुख की तरतमता कहीं विश्राम पाती है | अर्थात् परमातिशयता को प्राप्त करती है । क्योंकि तरतम शब्द से वाच्य है । (उसका क्रमिक विकास होता है।) जैसे कि, परिमाण की तरतमता अर्थात् परिमाण का क्रमिक विकास ।"
तथा “आनंद ही ब्रह्म का स्वरुप है । और वह मोक्ष में ( पूर्णतया ) प्रकट होता है । जिस समय परब्रह्म का साक्षात्कार करके सर्व अविद्यादि बंधनो को तोड डालता है उस समय बंधन से मुक्त आत्मा अपने स्वरुप में हंमेशा उस परमानंद का अनुभव करता है ।" यह श्रुति के वचन से भी मोक्ष में (आत्मा के) आनंद स्वरुप का स्पष्ट प्रतिपादन होता है ।
तथा “जहां आत्यंतिकसुख है, जिसका सुख अतीन्द्रिय है, वह सुख मात्र बुद्धिग्राह्य ही है और जो आत्मज्ञान से रहित मूढ आत्मा को दुःख से प्राप्त होता है, उसे मोक्ष जानना । इस श्रुति के वचन से मोक्ष की सुखमयता का स्वीकार करना चाहिए। इस तरह से मोक्ष में सुख (आनंद)मयता सिद्ध होती है। इसलिए वैशेषिको की मान्यता का खंडन हो जाता है ।
शुद्धचैतन्यस्वरूपोऽयं
पुरुषः, तृणस्य
F-23 ज्ञानमस्या
अत्र सांख्या ब्रुवते 1 इह कुब्जीकरणेऽप्यशक्तत्वादकर्ता, साक्षादभोक्ता, जडां प्रकृति सक्रियामाश्रितः अज्ञानतमश्छन्नतया प्रकृतिस्थमपि सुखादिफलमात्मनि प्रतिबिम्बितं चेतयमानो मोदते मोदमानश्च प्रकृतिं सुखस्वभावां मोहान्मन्यमानः संसारमधिवसति । यदा तु विर्भवति “दुःखहेतुरियं न ममानया सह संसर्गे युक्तः” इति, तदा विवेकख्यातेर्न तत्संपादितं कर्मफलं भुङ्क्ते । सापि च “विज्ञातविरूपाहं न मदीयं कर्मफलमनेन भोक्तव्यम्,” इति मत्वा कुष्ठिनीस्त्रीवद्दूरादवसर्पति । तत उपरतायां प्रकृतौ पुरुषस्य स्वरूपेणावस्थानं मोक्षः । स्वरूपं च F-24 चेतनाशक्तिरपरिणामिन्यप्रतिसंक्रमा प्रतिदर्शितविषयाऽनन्ता च अतस्तदात्मक एव मुक्तात्मा न पुनरानन्दादिस्वभावः, तस्य प्रकृतिकार्यत्वात्, तस्याश्च जीवनाशं नष्टत्वात् ।
(F-23-24 ) - तु० पा० प्र० प० ।
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