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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन १४१/७६४ व्याख्या का भावानुवाद : जीव के साथ संबद्ध कर्म का बारह प्रकार के तप द्वारा गिर जाना उसे निर्जरा कहा जाता है। वह निर्जरा दो प्रकार की है। (१) सकामनिर्जरा, (२) अकामनिर्जरा। उसमें सकामनिर्जरा चारित्रीयों को दुष्करतप-चारित्र-कायोत्सर्ग करण-बाईस परिषहो को सहने में तत्पर आत्माओ को, लोचादि कायक्लेश करनेवालो को, अठारह शीलांग को धारण करनेवालो को, बाह्यअभ्यंतर सर्वपरिग्रह का त्याग करनेवालो को, शरीर की (सुश्रुषाशुद्धि इत्यादि) प्रतिकर्म नहीं करनेवाले आत्माओं को होती है। अकामनिर्जरा उपरोक्त आत्माओ से अन्य जीवो को तीव्र शारीरिक, मानसिक अनेक प्रकार के सेंकडो दुःखो को (इच्छा के बिना) सहने से होती है। अब श्लोक के उत्तरार्ध द्वारा मोक्षतत्त्व का निरुपण करते है। शरीर, पांच इन्द्रिय, आयुष्य, श्वासोश्वासरुप दस बाह्यप्राण, पुण्य, पाप, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, पुनर्जन्मग्रहण, तीन वेद, कषायादि का संयोग, अज्ञान तथा असिद्धत्वादि के आत्यंतिक वियोग को मोक्ष कहा जाता है। जो वियोग = नाश शाश्वत होता है परंतु कादाचित्क होता नहीं है तथा जिसका (लेशमात्र) सद्भाव (अर्थात् जिसका नाश हुआ है, उसका सद्भाव) होता नहीं है उसे आत्यंतिक कहा जाता है। देहादि का वियोग (नाश) हमेशा रहे तथा पुनः देहादि उत्पन्न न हो अर्थात् देहादि उत्पन्न होके नाश का अभाव न करे, अनंतकाल तक जो नाश रहे उसे आत्यंतिक वियोग (नाश) कहा जाता है। इस प्रकार नाश के शाश्वतभाव को ही आत्यंतिक कहा जाता है। ___ अत्र पर आह, ननु भवतु देहस्यात्यन्तिको वियोगः तस्य सादित्वात्, परं रागादिभिः सहात्यन्तिको वियोगोऽसंभवी प्रमाणबाधनात् । प्रमाणं चेदम्-यदनादिमत् न तद्विनाशमाविशति यथाकाशम् । अनादिमन्तश्च रागादय इति उच्यते, यद्यपि रागादयो दोषा जन्तोरनादिमन्तः-तथापि कस्यचिद्यथावस्थितस्त्रीशरीरादिवस्तुतत्त्वावगमेन तेषां रागादीनां प्रतिपक्षभावनातः प्रतिक्षणमपचयो दृश्यते । ततः संभाव्यते विशिष्टकालादिसामग्रीसद्भावे भावनाप्रकर्षतो निर्मूलमपि क्षयः, निर्मूलक्षयानभ्युपगमेऽपचयस्याप्यसिद्धेः । यथा हिशीतस्पर्शसंपाद्या रोमहर्षादयः शीतप्रतिपक्षस्य च वह्नर्मन्दतायां मन्दा उपलब्धा उत्कर्षे च निरन्वयविनाशिनः । एवमन्यत्राप्यमन्दतासद्भावे निरन्वयविनाशोऽवश्यमेष्टव्यः । अथ यथा ज्ञानावरणीयकर्मोदये ज्ञानस्य मन्दता भवति तत्प्रकर्षे च ज्ञानस्य न निरन्वयो विनाशः, एवं प्रतिपक्षभावनोत्कर्षेऽपि न रागादीनामत्यन्तमुच्छेदो भविष्यतीति ?, तदयुक्तम्, द्विविधं हि बाध्यं, सहभूस्वभावं सहकारिसंपाद्यस्वभावं च । तत्र यत्सहभूस्वभावं, तन्न बाधकोत्कर्षे कदाचिदपि निरन्वयं विनाशमाविशति । ज्ञानं चात्मनः सहभूस्वभावम् । आत्मा च Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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