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________________ १४२/७६५ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन परिणामिनित्यः, ततोऽत्यन्तप्रकर्षवत्यपि ज्ञानावरणीयकर्मोदये ज्ञानस्य न निरन्वयो विनाशः । रागादयस्तु लोभादिकर्मविपाकोदयसंपादितसत्ताकाः, ततः कर्मणो निर्मूलमपगमे तेऽपि निर्मूलमपगच्छन्ति । प्रयोगश्चात्र-ये सहकारिसंपाद्या यदुपधानादपकर्षिणः ते तदत्यन्तवृद्धौ निरन्वयविनाशधर्माणः, यथा रोमहर्षादयो वह्निवृद्धौ । भावनोपधानादपकर्षिणश्च सहकारिकर्मसंपाद्या रागादय इति । अत्र “सहकारिसंपाद्या” इति विशेषणं सहभूस्वभावज्ञानादिव्यवच्छेदार्थम् । यदपि च प्रागुपन्यस्तं प्रमाणं “यदनादिमत्, न तद्विनाशमाविशति” इति, तदप्यप्रमाणं, प्रागभावेन हेतोर्व्यभिचारात् । प्रागभावो ह्यनादिमानपि विनाशमाविशति, अन्यथा कार्यानुत्पत्तेः । काञ्चनोपलयोः संयोगेन च हेतुरनैकान्तिकः । तत्संयोगोऽपि ह्यनादिसंततिगतोऽपि क्षारमृत्पुटपाकादिनोपायेन विघटमानो दृष्ट इति । व्याख्या का भावानुवाद : शंका : शरीर का आत्यंतिक वियोग चाहे हो, क्योंकि देह सादि है, परंतु रागादि के साथ का आत्यंतिकवियोग असंभवित है। क्योंकि वह प्रमाण से बाधित है । वह प्रमाण यह रहा। जो भाव अनादि है, उसका विनाश होता नहीं है। जैसे कि, आकाश । वैसे रागादि अनादि होने से उसका विनाश नहीं हो सकता है। समाधान : यद्यपि जीव के रागादि दोष अनादि है, तो भी कोई जीव को स्त्री के शरीर का, संसार के पदार्थ का यथावस्थित स्वरुप समजाने से उसको रागादि की प्रतिपक्षभावना से वह रागादि दोषो का प्रतिक्षण अपचय होता दिखाई देता है। अर्थात् जिसके उपर रागादि हुए है, उसका वास्तविक स्वरुप समजाने से प्रतिपक्षभावना के बल से रागादि का अपचय होता दिखाई देता है। इसलिए विशिष्ट कालादि सामग्री के सद्भाव में भावना के प्रकर्ष से रागादि का निर्मूलक्षय भी संभवित होता है। यदि रागादि का निर्मूल सर्वथा क्षय स्वीकार नहि करोंगे तो रागादि के अपचय की भी सिद्धि नहीं हो सकती है। जैसे कि, शीतस्पर्श के कारण शरीर में हुए रोमांच, हर्षादि शीतस्पर्श के प्रतिपक्षभूत वह्नि की मंदता में वे मंद होते दिखाई देते है और वह्नि की उत्कर्षता में संपूर्ण नाश होता भी दिखाई देता है। इस अनुसार से अन्य स्थान पे भी प्रतिपक्ष की मंदता (उत्कर्षता) में निरन्वयविनाश मानना चाहिए। शंका : जैसे ज्ञानावरणीय कर्म के उदय में ज्ञान की मंदता होती है और उस कर्म के उदय की प्रकर्षता में ज्ञान का निरन्वय नाश होता नहीं है। इस अनुसार से भावना का उत्कर्ष होने पर भी रागादि का अत्यंत उच्छेद नहीं होगा। समाधान : बाध्य (बाधित होने योग्य) वस्तु दो प्रकार की है। (१) सहभूस्वभाववाली। अर्थात् सदा के लिए साथ रहनेवाले स्वभाववाली वस्तु । (२) सहकारिकारणो के कारण उत्पन्न हुए (विकारयुक्त) स्वभाववाली वस्तु। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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