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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन
सूक्ष्मभाग है। इसलिए हाथ इत्यादि से कर्म ग्रहण होते नहीं है।) परंतु राग-द्वेष-मोह के परिणाम स्वरुप चिकनाहटवाले आत्मा में कर्मयोग्य पुद्गलो का समूह चिपक जाता है। अर्थात् चीकनाहटवाले शरीर के उपर जैसे धूल लग जाती है, वैसे राग-द्वेष-मोह के परिणाम से युक्त चीकनाहटवाले आत्मा के उपर भी कर्म लग जाते है। आत्मा के प्रतिप्रदेश के उपर कर्मवर्गणा के अनंतापरमाणु चिपक गये होने से जीव कर्म के साथ एकीभाव को पा गया है। इससे जीव कथंचित् मूर्त हो गया है। इसलिए स्याद्वाद वादियों के द्वारा संसारी अवस्था में जीव को कथंचित् मूर्त भी स्वीकार किया गया है।
वह बंध प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार का है। तथा प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश के भेद से चार प्रकार का है। उसमें प्रकृति यानी स्वभाव । अर्थात् जैसे ज्ञानावरणीय का ज्ञान को ढकने का स्वभाव इत्यादि कर्मो के स्वभाव को प्रकृति कहा जाता है। अपने कषायरुप परिणाम से आत्मा के उपर कर्म को रहने की कालमर्यादा को स्थिति कहा जाता है। अनुभाग अर्थात् रस अर्थात् कर्म की मंद या तीव्रफल देने की शक्ति। कर्म के दल के संचय को प्रदेश कहा जाता है। ज्ञानावरणीयादि मूलप्रकृति के भेद से बंध आठ प्रकार का है। उत्तरप्रकृति के भेद से कर्मबन्ध एक सौ अट्ठावन प्रकार का है। वह भी तीव्र, तीव्रतर, मंद, मंदतर आदि भेद से अनेक प्रकार का है। इत्यादि (जैन दर्शन के) कर्मग्रंथ से जान लेना । ॥५२॥ उक्तं बन्धतत्वम् निर्जरातत्त्वमाह । बन्धतत्त्व कहा गया। अब निर्जरातत्त्व को कहते है। (मू.श्लो.) बद्धस्य कर्मणः साटो, यस्तु सा निर्जरा मता ।
आत्यन्तिको वियोगस्तु, देहादेर्मोक्ष उच्यते ।।५२ ।। श्लोकार्थ : आत्मा के उपर बंधे हुए कर्म का जो गिर जाना उसे निर्जरा कहा जाता है। देहादि के आत्यंतिक वियोग को मोक्ष कहा जाता है । ॥५२॥
व्याख्या-यस्तु बद्रस्य-जीवेन सम्बद्धस्य कर्मणो-ज्ञानावरणादेः साटः-सटनं द्वादशविधेन तपसा विचटनं, सा निर्जरा मता-संमता । सा च द्विधा, सकामाकामभेदात् । तत्राद्या चारित्रिणां दुष्करतरतपश्चरणकायोत्सर्गकरणद्वाविंशतिपरीषहपराणां लोचादिकायक्लेशकारिणामष्टादशशीलाङ्गधारिणां बाह्याभ्यन्तरसर्वपरिग्रहपरिहारिणां निःप्रतिकर्मशरीरिणां भवति । द्वितीया त्वन्यशरीरिणां तीव्रतरशरीरमानसानेककटुकदुःखशतसहस्रसहनतो भवति ।। अथोत्तरार्धेन मोक्षतत्त्वमाह
“आत्यन्तिकः” इत्यादेः । देहादिः-शरीरपञ्चकेन्द्रियायुरादिबाह्यप्राणपुण्यापुण्यवर्णगन्धरसस्पर्शपुनर्जन्मग्रहणवदत्रयकषायादि सङ्गाज्ञानासिद्धत्वादे रात्यन्तिको वियोगो विरहः पुनर्मोक्ष इष्यते । यो हि शश्वद्भवति न पुनः कदाचिन्न भवति, स आत्यन्तिकः ।
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