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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५१, जैनदर्शन होते है । इसलिए पूर्वबंध की अपेक्षा से आश्रव कार्य है, बंध कारण है। तथा उत्तरबंध की अपेक्षा से कारण है। अर्थात् आत्मा में पडे हुए मिथ्यात्वादि मलिनभाव कर्मबंध का कारण बनते है। इसलिए उत्तरबंध की अपेक्षा आश्रव कारण है, कर्मबंध कार्य है । इस तरह से बंध भी पूर्व - उत्तर आश्रव की अपेक्षा से कार्य और कारण जानना । बीज और अंकुर की तरह बंध और आश्रव में परस्पर कार्यकारणभाव नियामक है । अर्थात् अंकुरका कारण बीज है और अंकुर कार्य है । उसके बाद अंकुरो में से क्रमिकविकास होने से धान्योत्पत्ति होती है, तब अंकुर कारण बनते है और बीज कार्य है । इस प्रकार अंकुर और बीज के बीच परस्पर कार्य-कारणभाव है, वैसे मिथ्यात्वादि मलिनभावो के योग से कर्मबंध होता है, तब मिथ्यात्वादि आश्रव कारण बनते है और बंध कार्य बनता है और कर्मबंध के कारण मिथ्यात्वादि मलिनभाव पेदा होता है, तब कर्मबंध कारण बनता है, मिथ्यात्वादि आश्रव कार्य बनते है । इस प्रकार आश्रव और बंध के बीच परस्पर कार्यकारणभाव है। तथा इस तरह से आश्रव और बंध के बीच परस्पर कार्यकारणभाव कहने से इतरेतराश्रयदोष आता नहीं है। अर्थात् एकदूसरे के उपर आधार रखना उसे अन्योन्याश्रय (इतरेतराश्रय) दोष कहा जाता है । आश्र बंध से उत्पन्न होता है और आश्रव से बंध उत्पन्न होता है । ऐसा अन्योन्याश्रयदोष होने से दोनो में से एक की भी सिद्धि होती नहीं है । ऐसा मत कहना । क्योंकि आश्रव और बंध का प्रवाह अनादि होने से इतरेतराश्रयदोष आता नहीं है । अर्थात् अनादिकाल से पूर्वबंध से आश्रव, उससे उत्तरबंध, उससे आश्रव, उससे उत्तरोत्तर बंध, इस तरह से दोनो प्रवाह की अपेक्षा से अनादि है । यदि उस आश्रव को बंध का हेतु और वही आश्रव को ही बंध का कार्य कहे तो अन्योन्याश्रयदोष आता है। परन्तु वैसा तो नहीं है । १३७ / ७६० पुण्य बंध और पाप बंध के हेतुरुप आश्रव दो प्रकार का है। ये दोनो प्रकार का आश्रव भी मिथ्यात्वादि उत्तरभेद की अपेक्षा से तथा उत्कर्ष - अपकर्ष के भेद की अपेक्षा से अनेक प्रकार का है 1 यह शुभाशुभ मन-वचन-काया के व्यापारस्वरुप आश्रव की स्वात्मा में (अपने आत्मामें ) स्वसंवेदनादि प्रत्यक्ष से सिद्धि होती है। दूसरे के आत्मा में यह आश्रव, उसके वचन और काययोग के व्यापार से किसी को प्रत्यक्ष होता ही है और शेषमनोयोग के व्यापाररुप आश्रव कार्य देखकर अनुमान से मालूम होता है । इस प्रकार स्व-पर के आत्मा में प्रत्यक्ष और अनुमान से आश्रव की सिद्धि होती है। आश्रवतत्त्व की सिद्धि आगम प्रमाण तो है ही । इसलिए आश्रव तत्त्व की सत्ता स्वीकार करनी चाहिए | ॥५०॥ अथ संवरबन्धौ विवृणोति । अब संवर और बंधतत्त्व का निरुपण करते है । (मू.श्लो.) संवरस्तन्निरोधस्तु, बन्धो जीवस्य कर्मणः । अन्योन्यानुगमात्मा तु, यः सम्बन्धो द्वयोरपि ।। ५१ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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