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________________ १३६/७५९ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५०, जैनदर्शन पुण्यापुण्यबन्धहेतुतया द्विविधः । द्विविधोऽप्ययं मिथ्यात्वाद्युत्तरभेदापेक्षयोत्कर्षापकर्षभेदापेक्षया वानेकप्रकारः । अस्य च शुभाशुभमनोवाक्कायव्यापोररूपस्यास्रवस्य सिद्धिः स्वात्मनि स्वसंवेदनाद्यध्यक्षतः, परस्मिंश्च वाक्कायव्यापारस्य कस्यचित्प्रत्यक्षतः, शेषस्य च तत्कार्यप्रभवानुमानतश्चावसेया, आगमाञ्च ।।५०।। व्याख्या का भावानुवाद : अब आश्रवतत्त्व का निरुपण करते है। मिथ्यात्वादि कर्मबंध के हेतु है। कुदेव में सुदेव की, कुगुरु में सुगुरु की, कुधर्म में सुधर्म की बुद्धि को मिथ्यात्व कहा जाता है। (अर्थात् राग-द्वेष की तीव्र परिणति की विद्यमानता में जो कुदेवादि में सुदेवादि की बुद्धि होती है, उसको मिथ्यात्व कहा जाता है।) हिंसादि की अनिवृत्ति को अविरति कहा जाता है। (प्रकर्ष से आत्मा के लिए अहितकर प्रवृत्तियो में व्यस्त-त्रस्त करे उसे प्रमाद कहा जाता है।) मद्य, विषय, कषाय, निद्रा, विकथा पांच प्रकार का प्रमाद है। (जिससे संसार का लाभ अर्थात् संसार परिभ्रमण चलता रहे उसे कषाय कहा जाता है।) क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय है। मन, वचन और काया के व्यापार को योग कहा जाता है। यहाँ इस अनुसार से अक्षर घटना है -- ज्ञानावरणीयादि कर्मबंध के मिथ्यात्वादि जो हेतु है उसको मिथ्यात्वादि को जैनशासन में आश्रव जानना। जिससे (आत्मामें) कर्म आता है, उसे आश्रव कहा जाता है। इसलिए मिथ्यात्वादि विषयक मन-वचन-काया के व्यापार ही शुभाशुभ कर्मबंध के कारण होने से आश्रव कहे जाते है। शंका : बंध के अभाव में आश्रव की उपपत्ति किस तरह से होती है ? अर्थात् आत्मा में कर्म का बंध नहीं है, तो आत्मा में बंध के कारणभूत मिथ्यात्वादि आश्रव किस तरह से हो सकते है ? तथा मिथ्यात्वादि मलिन भावो के बिना आत्मा में कर्म किस तरह से आ सकेंगे? अथवा आत्मा में पहले से ही बंध का सद्भाव है। इसलिए आश्रव की बंधहेतुता निरर्थक है। क्योंकि पहले भी आत्मा में बंध विद्यमान है फिर उसके कारणभूत आश्रव की जरूरत है ? उपरांत, जो जिसके अभाव में भी होता है, वह उसका कारण होता नहीं है। अर्थात् जो जिसका कारण होता है, वह उसके अभाव में नहीं होता है। अर्थात् आश्रव आत्मा में नहीं था, उस वक्त आत्मा में बंध था, अर्थात् जो पहले भी आत्मा मे बंध था और आश्रव नहीं था, तो उस आश्रव को बंध का कारण किस तरह से कहा जा सकता है? यदि आश्रव को कारण कहोंगे तो अतिप्रसंग आयेगा। क्योंकि बंध के प्रति आश्रव की हेतुता न होने पर भी आश्रव को बंध का प्रति हेतु कहने से अतिव्याप्ति आती है। समाधान : आपकी बात उचित नहीं है। क्योंकि आश्रव पूर्वबंध की अपेक्षा से कार्य के रुप में चाहा जाता है। अर्थात् पहले आत्मा में जो कर्म बंध था, उसके योग से आत्मा में मिथ्यात्वादि मलिनभाव उत्पन्न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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