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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन
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परमाणावपि विद्यते । तथा द्रव्यग्रहणाद्गुणपर्यायवान् प्रोच्यते, “गुणपर्यायवद्रव्यम्” [त. सू० ५/३८] इति वचनात् । तथास्तयः-प्रदेशाः प्रकृष्टा देशाः प्रदेशा निर्विभागानि खण्डानीत्यर्थः । तेषांकायः-समुदायः कथ्यते । तथा लोकव्यापीतिवचनेनासंख्यप्रदेश इतिवचनेन च लोकाकाशप्रदेशप्रमाणप्रदेशो निर्दिश्यते । तथा स्वत एव गतिपरिणतानां जीवपुष्टलानामुपकारकरोऽपेक्षाकारणमित्यर्थः । कारणं हि त्रिविधमुच्यते, यथा घटस्य मृत्परिणामिकारणं १, दण्डादयो ग्राहकाश्च निमित्तकारणं २, कुम्भकारो निर्वर्तकं कारणम् ३ । तदुक्तम्-“निर्वर्तकं निमित्तं, परिणाम, च विधेष्यते हेतुः । कुम्भस्य कुम्भकारो, धर्ता मृञ्चेति समसंख्यम् ।।१।।" निमित्तकारणं च द्वेधा निमित्तकारणमपेक्षाकारणं च । यत्र दण्डादिषु प्रायोगिकी वैनसिकी च क्रिया भवति तानि दण्डादीनि निमित्तकारणम् । यत्र तु धर्मादिद्रव्येषु वैस्रसिक्येव क्रिया तानि निमित्तकारणान्यपि विशेषकारणताज्ञापनार्थमपेक्षाकारणान्युच्यन्ते । धर्मादिद्रव्यगतक्रियापरिणाममपेक्षमाणं जीवादिकं गत्यादिक्रियापरिणति पुष्णातीति कृत्वा ततोऽत्र धर्मोऽपेक्षाकारणम् १।
व्याख्या का भावानुवाद : जीव से विपरीत अजीव है। अर्थात् जीव के विशेषणो से विपरीत विशेषणोवाला अजीव है। जीव से अन्यथास्वरुपवाला अजीव है । जीव ज्ञानादिधर्मोवाला है तो अजीव अज्ञानादि धर्मोवाला है । जीव ज्ञानादिधर्मो से भिन्नाभिन्न है, तो अजीव अज्ञानादिधर्मो से भिन्नाभिन्न है । जीव रुपादिरहित है तो अजीव रुपादिसहित है। उपरांत अजीव रुपादिचार से भिन्नाभिन्न है। जीव मनुष्य, देवादि दूसरे भवो में जानेवाला है। अजीव भवान्तरगामी नहीं है। जीव ज्ञानावरणीयादि कर्मो का कर्ता और भोक्ता है, तो अजीव ज्ञानावरणीयादि कर्मो का कर्ता या भोक्ता नहीं है। अजीव जडस्वरुप है। अजीव के पांच प्रकार है। (१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) काल, (५) पुद्गलास्तिकाय ।
उसमें धर्मास्तिकाय लोकाकाश में व्याप्त है, नित्य है, अवस्थित है, अरुपी है, अस्तिकाय द्रव्य है, असंख्यप्रदेशवाला है तथा जीव और पुद्गल की गति में सहायक है।
यहाँ "नित्य" शब्द से यह सूचना करते है कि धर्मास्तिकाय स्वभाव से नष्ट नहीं होता है। अर्थात् उसका स्वभाव नित्य है, नष्ट नहीं होता है।
"अवस्थित" शब्द द्वारा धर्मास्तिकाय न्यूनाधिक होता नहीं है वह प्रकट होता है। अर्थात् वह एक अखंडद्रव्य ही रहता है। वह दो भी नहीं होता है या शून्य भी नहीं होता है।
उपरांत "अन्यूनाधिकता" पद द्वारा यह सूचित होता है कि अनादि-सांतता तथा (अनियत) परिमाण A उद्धृतेयं त० भा० टी० ५/१७ ।
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