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________________ १०४/७२७ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन (पश्चिम) की खिडकी की ओर जाती उस स्त्री के सामने पश्चिम के ओर की खिडकी में जाके हाथ इत्यादि से कुचस्पर्शादि विकार का प्रदर्शन करता हुआ देवदत्त उन खिडकीयों से भिन्न है । कहने का आशय यह है कि, यदि आत्मा इन्द्रियरुप ही हो, तो एक इन्द्रिय से पदार्थ को जानकर दूसरी इन्द्रिय में विकार नहीं कर सकता। क्योंकि वह तो दोनो इन्द्रियो के स्वामी को ही हो सकता है। कोई व्यक्ति, कोई दूसरी व्यक्ति को आँख से इमली खाती देखकर उस व्यक्ति को इमली खाने की इच्छा, जीभ में पानी आना इत्यादि विकार होते है। यह हकीकत इस बात की सूचना करती है कि आँख, हृदय और जीभ के उपर अधिकार रखनेवाला कोई तो होना ही चाहिए, कि जो यथेच्छ रुप से देख सके,इच्छा कर सके, इत्यादि कार्य कर सके। और वही इन्द्रियो से भिन्न आत्मा है। अथवा इन्द्रियों से अतिरिक्त आत्मा है क्योंकि अन्य जगह से जानकर अन्य जगह से ग्रहण करता है। जो घटादि को अन्य जगह से जानकर अन्य जगह से ग्रहण करता है, वह उभयस्थानो से भिन्न देखा गया है। जैसे कि, पूर्व के ओर की खिडकी से घट को जानकर अपर (पश्चिम) के ओर की खिडकी से ग्रहण करता देवदत्त वह दोनों खिडकीयों से भिन्न है। जीव चक्षु द्वारा घट को जानता है और हाथ के द्वारा घट को ग्रहण करता है (तो वह आत्मा चक्षु स्वरुप हो, तो हाथ के द्वारा ग्रहण किस तरह से कर सकेगा? और यदि वह हाथरुप हो, तो चक्षु से देख सकेगा किस तरह से? इसलिए चक्षु और हाथ के उपर नियंत्रण रखनेवाला उन दोनों से भिन्न आत्मा मानना चाहिए।) इसलिए आत्मा चक्षु और हाथ से भिन्न है। इस तरह से इस विषय में एक नहीं अनेक अनुमान - युक्तियां है। वह विशेषावश्यकभाष्य की टीका (व्याख्या) से जान लेना। इस तरह से विस्तार से जीवतत्त्व का स्वरुप कहा गया। ___ अजीवतत्त्वं व्याचिख्यासुराह- “यश्चैतद्विपरीतवान्” इत्यादि । यश्चैतस्माद्विपरीतानि विशेषणानि विद्यन्ते यस्यासावेतद्विपरीतवान् सोऽजीवः समाख्यातः । “यश्चैतद्वैपरीत्यवान्" इति पाठे तु । यः पुनस्तस्माज्जीवाद्वैपरीत्यमन्यथात्वं तद्वानजीवः स समाख्यातः । अज्ञानादिधर्मेभ्यो रूपरसगन्धस्पर्शादिभ्यो भिन्नाभिन्नो नरामरादिभवान्तराननुयायी ज्ञानावरणादिकर्मणामकर्ता तत्फलस्य चाभोक्ता जडस्वरूपश्चाजीव इत्यर्थः । स च धर्माधर्माकाशकालपुष्टलभेदात्पञ्चविधोऽभिधीयते । तत्र धर्मो लोकव्यापी नित्योऽवस्थितोऽरूपी द्रव्यमस्तिकायोऽसंख्यप्रदेशो गत्युपग्रहकारी च भवति । अत्र नित्यशब्देन स्वभावादप्रच्युत आख्यायते । अवस्थितशब्देनान्यूनाधिक आविर्भाव्यते । अन्यूनाधिकश्चानादिनिधनते-यत्ताभ्यां न स्वतत्त्वं व्यभिचरति । तथाऽरूपिग्रहणादमूर्त उच्यते । अमूर्तश्च रूपरसगन्धस्पर्शपरिणामबाह्यवर्त्यभिधीयते । न खलु मूर्ति स्पर्शादयो व्यभिचरन्ति, सहचारित्वात् । यत्र हि रूपपरिणामस्तत्र स्पर्शरसगन्धैरपि भाव्यम् । अतः सहचरमेतञ्चतुष्टयमन्ततः Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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