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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन द्वारा धर्मास्तिकाय तत्त्व व्यभिचरित होता नहीं है । क्योंकि धर्मास्तिकाय अनादिअनंत और ( जिसमें प्रदेशो की कमी या बढौती होती नहीं है वैसे नियत ) परिमाणवाला तत्त्व है I १०६ / ७२९ "अरुपी” पद के ग्रहण से धर्मास्तिकाय अमूर्त कहा जाता है । जिसमें रुप, रस, गंध, स्पर्श से बाह्यपरिणाम हो उसे अमूर्त कहा जाता है। अर्थात् जिसमें रुपादि न हो उसे अमूर्त कहा जाता है। जिसमें रुप, रस, गंध, स्पर्श हो उसे मूर्त कहा जाता है और जिसमें रुपादि नहीं है वह उसे अमूर्त कहा जाता है । तथा मूर्ति का = मूर्त पदार्थों को स्पर्शादि व्यभिचरित करते नहीं है। क्योंकि रुपादि मूर्त पदार्थो मूर्ति को सहचारिसंबंध है। जहाँ रुप का परिणाम हो, वहां अवश्य स्पर्श, रस और गंध होते है ही । इसलिए रुपादि चारों सहचरित है | इसलिए वह परमाणु में भी होते है । अर्थात् रुपादि चारो गुण परमाणु से लेकर स्कन्धपर्यन्त सभी मूर्तपदार्थो में होते ही है। “धर्मास्तिकाय अस्तिकाय द्रव्य है" - ऐसा कहा था, उसमें द्रव्य के ग्रहण से धर्मास्तिकाय गुण और पर्यायवाला तत्त्व है ऐसा सिद्ध होता है । क्योंकि " गुण - पर्यायवाला जो हो, उसको द्रव्य कहा जाता है।" ऐसा शास्त्रवचन है । (सहभावी धर्मो को गुण तथा क्रमभावी धर्मो को पर्याय कहा जाता है।) अस्तिकायका तात्पर्य यह है कि अस्ति यानी प्रदेश अर्थात् प्रकृष्टदेश अर्थात् जिसके विभाग न पड सके वैसे) निर्विभाज्यखंड | उन निर्विभाज्यखंडो का काय - समूह । अर्थात् निर्विभाज्य खंडो के समुदाय को अस्तिकाय कहा जाता है "धर्मास्तिकाय लोकव्यापी है और असंख्य प्रदेशवाला है ।" इस वचन से धर्मास्तिकाय लोकाकाश के प्रदेशो के प्रमाणवाले प्रदेशवाला निर्देश किया गया है। अर्थात् लोकाकाश के जितने प्रदेश है, उतने ही धर्मास्तिकाय के है I तथा धर्मास्तिकाय स्वत: ही गति में परिणत जीव और पुद्गलो को गति करने में उपकारक अर्थात् अपेक्षाकारण है। (वैसे धर्मास्तिकाय जीव-पुद्गल को गति कराता नहीं है। परंतु केवल गति कराने में सहायक होता है। अपेक्षित कारण की भूमिका अदा करता है । जैसे मछली को पानी तैराता नहीं है। परंतु तैरने में अपेक्षितकारण के रुपमें भूमिका अदा करता है ।) कारण तीन प्रकार के है - जैसे कि (१) घट का मिट्टी परिणामिकारण है । (२) घट का दंडादि निमित्तकारण है । (३) घट का कुंभकार निर्वर्तककारण है। इस प्रकार परिणामिकारण, निमित्तकारण और निर्वर्तककारण ऐसे कारण के तीन प्रकार है । जो कारण स्वयं कार्यरुप में परिणाम प्राप्त कर ले, उसे परिणामिकारण कहा जाता है। जैसे मिट्टी घटरूप में परिणाम प्राप्त कर लेती है । इसलिए मिट्टी घट का परिणामिकारण है। जो स्वयं कार्यरुप में परिणाम न पाये, परंतु कर्ता को कार्य करने में सहायक हो उसे निमित्त कारण कहा जाता है। जैसे कि घट के प्रति दंड - चक्र इत्यादि । कार्य का कर्ता निर्वर्तककारण कहा जाता है। जैसे कि, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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