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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन ८७/ ७१० “प्रमाणपञ्चकाभावेन” इत्यादि यदप्यवादि तदपि मदिराप्रमादिविलसितसोदरं, यतो हिमवदुत्पल-परिमाणादीनां पिशाचादीनां च प्रमाणपञ्चकाभावेऽपि विद्यमानत्वादिति, अतो यत्र प्रमाणपञ्चकाभाव-स्तदसदेवेत्यनैकान्तिकम् । इति सिद्धः प्रत्यक्षादिप्रमाणग्राह्य आत्मा । स च विवृत्तिमान परलोकयायी । तत्र चानुमानमिदम् - E-95तदहर्जातबालक-स्याद्यस्तन्याभिलाषः पूर्वाभिलाषपूर्वकः, अभिलाषत्वात्, द्वितीयदिनाद्यस्तनाभिलाषवत् । तदिदमनुमानमाद्यस्तनाभिलाषस्याभिलाषान्तरपूर्वकत्वमनुमापयदर्थापत्त्या परलोकगामिनं जीवमाक्षिपति, तज्जन्मन्यभिलाषान्तराभावादिति स्थितम् ।। व्याख्या का भावानुवाद : इस तरह से आत्मा की अनुमानग्राह्यता सिद्ध होने से अनुमान की अंदर समाविष्ट होते आगम, उपमान और अर्थापत्ति से भी आत्मा की ग्राह्यता सिद्ध हो जाती है। वैसे ही "आत्मा की सिद्धि में प्रमाणपंचक की प्रवृत्ति का अभाव होने से आत्मा अभाव प्रमाण का विषय बनता है।" ऐसा जो कहा था, वह भी मदिरापान के उन्माद से बोले हुए असंबद्ध वचनो के जैसा है। क्योंकि हिमालय का परिमाण आदि तथा पिशाचादि में प्रमाणपंचक की प्रवृत्ति का अभाव होने पर भी हिमालय का (कोई-न-कोई) परिमाण आदि तथा पिशाचादि विद्यमान ही है। इसलिए आपके अनुमान में प्रयोजित हुए "प्रमाणपंचकाभावत्व" हेतु अनैकान्तिक है। इसलिए पांच प्रमाण की प्रवृत्ति न होनेमात्र से वस्तु का अभाव नहीं माना जा सकता। इसलिए आत्मा के अभाव के लिए प्रयोजित किया हुआ हेतु व्यभिचारी है। इस अनुसार से प्रत्यक्षादि प्रमाण से ग्राह्य आत्मा सिद्ध होता है। वह आत्मा विवृत्तिमान् अर्थात् परलोकगामी है। अनुमानप्रयोग इस अनुसार है - "तत्काल उत्पन्न हुए बालक के आद्य (पहले) स्तनपान की अभिलाषा पूर्वाभिलाषापूर्वक होती है। क्योंकि अभिलाषा है। जैसे कि द्वितीय दिन के आद्यस्तनपान की अभिलाषा।" अर्थात् द्वितीयस्तनपान की अभिलाषा, अभिलाषापूर्वक की होती है। वैसे तत्काल पैदा हुए बालक के स्तनपान की अभिलाषा भी अभिलाषापूर्वक की होनी चाहिए। इसलिए तत्काल पैदा हुए बालक के स्तनपान की प्रवृत्ति अभिलाषापूर्वक की सिद्ध होने से (इस जन्म में तो तादृश अभिलाषा पहले हुई देखने नहीं मिलती है, इसलिए) अर्थापत्ति से पूर्वजन्म की अभिलाषा का अनुमान होता है और उससे आत्मा के पूर्वभव की सिद्धि होने से आत्मा परलोकगामी सिद्ध होता है। तथा कूटस्थनित्यताप्यात्मनो न घटते, यतो यथाविधः पूर्वदशायामात्मा तथाविध एव चेज्ज्ञानोत्पत्तिसमयेऽपि भवेत, तदा प्रागिव कथमेष पदार्थपरिच्छेदकः स्यात् ?, (E-95) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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