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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन
शंका : आपकी उपरोक्त सभी बाते असंगत है। क्योंकि.... मेरी त्रिलोकनाथता का निषेध किया जाता है वह असत् है इसलिए । पांचवे प्रतिषेध के प्रकार का निषेध किया जाता है वह भी असत् है। इसलिए असत् पदार्थो का ही निषेध किया जाता है, तो विद्यमान पदार्थो का ही निषेध किया जाता है, ऐसा नियम कहाँ रहा? उसी तरह से देवदत्त और गृह का संयोग तथा गधे और सिंग का समवाय, चन्द्र की अनेकता तथा मोती में घटप्रमाणताविशेष नहीं है, बिलकुल असत् ही है। फिर भी उसका निषेध किया गया है। इसलिए "जिसका निषेध होता है वह विद्यमान होता है।" यह नियम तूट जाता है। इसलिए उस नियम को दूषित क्यों न माना जाये?
समाधान : देवदत्तादि का संयोगादि गृहादि में अविद्यमान होने से निषेध किया जाता है। परन्तु अर्थान्तर में तो वह विद्यमान ही है। वह इस अनुसार से है - गृह के साथ ही देवदत्त का संयोग विद्यमान नहीं है। परन्तु अर्थान्तर ऐसे बगीचे इत्यादि के साथ तो है ही। तथा गृह का भी देवदत्त के साथ संयोग नहीं है। परंतु अर्थान्तर ऐसी चारपाई (खटिया) इत्यादि के साथ तो है ही। इस अनुसार से सिंग का भी गधे में ही समवाय नहीं है, गाय आदि में तो है ही। दूसरे चन्द्र का अभाव होने से चन्द्र में समानता (सामान्य) नहीं है। परंतु अर्थान्तर ऐसे घटादि में तो सामान्य (समानता) है ही। घट की प्रमाणता भी मोतीयो में नहीं है। परंतु अन्यत्र होता ही है। त्रिलोकनाथता भी आपमें ही नहीं है, तीर्थंकरादि में तो है ही।
प्रतिषेध की पांचवी संख्या भी (विवक्षित) प्रतिषेध के प्रकारो में ही नहीं है, परंतु पांच अनुत्तरविमानादि में तो है ही। इस अनुसार से इस विवक्षा से हम कहते है कि जिसका निषेध किया जाता है, वह सामान्य से (जगत में) विद्यमान ही होता है। ___ तथा हमने ऐसा तो नहीं कहा है कि जिसका जिस स्थान पे निषेध किया जाता है, वह उसी स्थान पे ही होता है, कि जिससे व्यभिचार आये।
इस अनुसार से विद्यमान ऐसे जीव का कहीं भी निषेध हो सकता है। परंतु सर्वत्र निषेध हो सकता नहीं है। अर्थात् आत्मा (जीव) विद्यमान होने से उसका कहीं अभाव हो सकता है, सर्वत्र अभाव नहीं हो सकता है। ___ तथा देह से अतिरिक्त आत्मा है। क्योंकि इन्द्रिय का उपरम (नाश) होने के बाद भी इन्द्रियो से ग्रहण किये हुए पदार्थ का स्मरण होता है। जैसे कि, खिडकी में से देखे हुए पदार्थ को खिडकी बंध होने के बाद भी उस पदार्थ का देवदत्त को स्मरण होता है। (कहने का मतलब यह है कि, देह से अतिरिक्त आत्मा है। क्योंकि इन्द्रियो का व्यापार न होने पर भी तथा कोई इन्द्रियो की हानी हो जाने पर भी, उस इन्द्रियो के द्वारा भूतकाल में महसूस किये हुए अर्थ का स्मरण होता है। और उस स्मरण करनेवाले के रुप में आत्मा की सिद्धि होती है।) इस तरह से सिद्ध होता है कि आत्मा अनुमानग्राह्य भी है।
अनुमानग्राह्यत्वे सिद्धे तदन्तर्भूतत्वेनागमोपमानार्थापत्तिग्राह्यतापि सिद्धा । किं च
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