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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन प्रतिनियतस्वरूपाऽप्रच्युतिरूपत्वात्कौटस्थ्यस्य । पदार्थपरिच्छेदे तु प्रागप्रमातुः प्रमातृ रूपतया परिणामात्कुतः कौटस्थ्यमिति ? | व्याख्या का भावानुवाद : आत्मा की कूटस्थ नित्यता भी संगत होती नहीं है । ( अनुभवविरुद्ध भी है ।) क्योंकि जिस प्रकार से पूर्वदशा में आत्मा था, उस प्रकार का ही यदि ज्ञान की उत्पत्ति के बाद भी आत्मा रहता हो, तो पहले की तरह वह मूर्ख (अज्ञानी) ही रहेगा । पदार्थ का ज्ञाता किस तरह से बन सकेगा ? क्योंकि प्रतिनियत स्वरुप में से जो च्युत (चलित) न हो वह कूटस्थ कहा जाता है । अर्थात् जिसके स्वरुप में कभी भी बदलाव न हो, उसे कूटस्थ कहा जाता है 1 ८८/ ७११ उपरांत पदार्थ का ज्ञाता बने तब पहले जो पदार्थ का ज्ञाता नहीं था, वह ज्ञातारुप में परिणाम पाता है, तो उसका कूटस्थत्व किस तरह से होगा ? कहने का मतलब यह है कि ज्ञान प्राप्त करनेवाला आत्मा पहले पदार्थ का ज्ञाता नहीं था और ज्ञान पाने से वह ज्ञातारुप में परिणमित हुआ, तो उसमें कूटस्थत्व किस तरह से रहेगा ? (वैसे ही कूटस्थ नित्य में कोई नये स्वभाव की उत्पत्ति नहीं हो सकती तथा उसके कोई स्वभाव का नाश नहीं होता । इसलिए वह मूर्ख हो तो मूर्ख ही रहेगा और मूर्ख हो वह विद्वान नहि बनेगा ।) इसलिए "यह व्यक्ति ( आत्मा ) विद्वान बनी ।" ऐसी अनुभवसिद्ध बात का अपलाप नहीं किया जा सकता। इसलिए आत्मा कूटस्थ नित्य नहीं है । तथा सांख्याभिमतमकर्तृत्वमप्ययुक्तम् । तथाहि कर्त्तात्मा, स्वकर्मफलभोक्तृत्वात्, यः स्वकर्मफलभोक्ता स कर्त्तापि दृष्टः यथा कृषीवलः । तथा सांख्यकल्पितः पुरुषो वस्तु न भवति, अकर्त्तृकत्वात्, खपुष्पवत् । किं चात्मा भोक्ताङ्गीक्रियते स च भुजिक्रियां करोति न वा ? । यदि करोति तदापराभिः क्रियाभिः किमपराद्धम् ! | अथ E- भुजिक्रियामपि न करोति, तर्हि कथं भोक्तेति चिन्त्यम् प्रयोगश्चात्र - संसार्यात्मा भोक्ता न भवति, अकर्त्तृकत्वात्, मुक्तात्मवत् । अकर्तृभोक्तृत्वाभ्युपगमे च कृतनाशाकृताभ्यागमादिदोषप्रसङ्गः । प्रकृत्या कृतं कर्म, न च तस्याः फलेनाभिसंबन्ध इति कृतनाशः । आत्मना च तन्न कृतम्, अथ च तत्फलेनाभिसंबन्ध इत्यकृतागम इत्यात्मनः कर्त्तृत्वमङ्गीकर्तव्यम् । व्याख्या का भावानुवाद : सांख्यमतानुसार आत्मा कर्ता नहीं है। (प्रकृति ही कर्ता है। सांख्यो की यह बात अयोग्य है।) क्योंकि उस बात की सिद्धि करनेवाले प्रमाण का अभाव है। आत्मा कर्ता है ही और उसमें प्रमाण यह रहा (E-96) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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