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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन ८१/ ७०४ कर्म पुद्गल से लिपटा हुआ होने के कारण सशरीरी ही है और इसलिए कथंचित् मूर्त भी है। इसलिए आपने बताया हुआ दोष नहीं है, हम सकर्मक आत्मा को सशरीरी और मूर्त भी मानते ही है। (६) रुपज्ञान, रसज्ञान आदि ज्ञान किसी (द्रव्य) के आश्रय में रहते है क्योंकि गुण है। जैसे रुपादि गुण होने से घटद्रव्य के आश्रय में रहते है वैसे ज्ञानादि भी गुण होने से किसी द्रव्य के आश्रय में ही रहने चाहिए और वही आश्रय आत्मा है। गुण द्रव्य के बिना रह नहीं सकता। इसलिए गुणो के आश्रय के रुप में आत्मा की सिद्धि होती है। (७) ज्ञान, सुखादि उपादानकारणपूर्वक होता है। क्योंकि कार्य है । जैसे घट कार्य है तो वह उपादानकारण मिट्टीपूर्वक ही होती है। वैसे ज्ञान-सुखादि भी कार्य होने से उपादानकारण पूर्वक ही होता है और वह स्वयं ज्ञानी और सुखी बननेवाला आत्मा है। अर्थात् ज्ञानादि के उपादान कारण के रुप में ज्ञानीसुखी आत्मा की सिद्धि होती है। __ शंका : ज्ञानादिगुणो का आश्रय शरीर है और उपादानकारण भी शरीर ही है। इसलिए हम आपके अनुमानो से शरीर की ही सिद्धि मान लेंगे, तो इसलिए प्रतिवादि ऐसे हमारे मत को सिद्ध करने रुप सिद्धिसाधन दोष आता है। समाधान : ऐसा नहि कहना चाहिए। क्योंकि हमने पहले ही ज्ञानादिगुणो के आश्रय के रुप में तथा ज्ञानादि गुणो के उपादानकारण के रुप में शरीर का निषेध कर ही दिया है और इसलिए हमारे अनुमानो से शरीर की सिद्धि होती ही नहीं है। इसलिए सिद्धसाधन दोष भी नहीं है। इसलिए ज्ञानादि गुणो के आश्रय तथा उपादानकारणभूत आत्मा की सिद्धि हो जाती है। (८)अजीव का प्रतिपक्षी जीव है। क्योंकि "न जीवः अजीवः" यह निषेधवाची अजीव शब्द में व्युत्पत्तिसिद्ध (व्याकरण के नियमानुसार प्रकृति-प्रत्यय से बने हुए "जीवति इति जीवः" पदका) तथा शुद्ध अखंड जीव पद का निषेध किया है। जहाँ निषेधात्मक शब्द में व्युत्पत्तिसिद्ध और शुद्ध अखंडपद का निषेध दिखता है । वह पद प्रतिपक्षवाला होता है। जैसे कि, निषेधात्मक अघट शब्द का प्रतिपक्ष घट अवश्य होता ही है। यह "अघट" प्रयोग में शुद्ध घटपद का "न घटः अघटः" रुप से निषेध किया है। इसलिए उसका प्रतिपक्ष घट अवश्य होना ही चाहिए। ("जो निषेधात्मक शब्द का प्रतिपक्षी पदार्थ न हो तो समज लेना कि वह या तो व्युत्पत्तिसिद्ध शब्द का निषेध नहीं करता या तो शुद्धशब्द का निषेध नहीं करता, परंतु कोई रुढ शब्द या दो शब्दो के जोडनेवाले संयुक्तशब्द का निषेध करता है"ऐसा सामान्यतः नियम है । जैसे कि "अखरविषाण" शब्द खर और विषाण ये दो शब्दो से बना हुआ है। इसलिए खरविषाण यह संयुक्त या अशुद्धपद का निषेध करता है। इसलिए उसका प्रतिपक्षी अपनी वास्तविक सत्ता रखता नहीं है।) व्याख्या में थोडी अलग पद्धति से यह बात को पेश की है वह देखे - जो शब्द प्रतिपक्षवाला नहीं है, वह शब्द व्युत्पत्तिसिद्ध शब्द का या शुद्धपद का निषेध करता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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