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________________ ८०/७०३ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन कि, कुल्हाडे से काटने की क्रिया कोई-न-कोई कर्ता से प्रयोज्य होती है। वैसे श्रोत्रेन्द्रिय इत्यादि से स्पर्शादि का ज्ञान करनेवाले कोई-न-कोई प्रयोजनकर्ता होना चाहिए। वही आत्मा है। अर्थात् इस तरह से इन्द्रियो के द्वारा पदार्थो का ज्ञान करनेवाले आत्मा की सिद्धि होती है। (३) शरीर का विधाता है। क्योंकि शरीर आदिवाला तथा प्रतिनियत आकारवाला है। अर्थात् शरीर कोई न कोई बनानेवाला है। क्योंकि उसकी शुरुआत होती है और उसका प्रतिनियत आकार होता है। जैसे घट का प्रारंभ होता है और प्रतिनियत आकार होने से उसको बनानेवाला कोई-न-कोई होता ही है। वैसे शरीर की भी शुरुआत होती है और प्रतिनियत आकार होने से उसको बनानेवाला कोई-न-कोई होना चाहिए और वही आत्मा है। उपरांत जो अकर्तृक (जिसकी उत्पत्ति कोई कर्ता के बिना होती है) वह प्रारंभवाला या प्रतिनियत आकारवाला भी होता नहीं है। जैसे कि अनियत आकारवाला बादल । अर्थात् जिसकी उत्पत्ति होती नहीं है और जिसका प्रतिनियत आकार नहीं उसको बनानेवाला भी कोई होता नहीं है। जैसे कि बादल और जो अपने देह का कर्ता है वही जीव (आत्मा) है। यद्यपि प्रतिनियत आकारवाला मेरुपर्वत इत्यादि भी है, फिर भी उसका कोई कर्ता नहीं है। इसलिए मेरुपर्वतादि के द्वारा हेतु अनैकान्तिक बनता है। तो भी "आदिमत्" विशेषण से वह दोष दूर होता है। क्योंकि मेरुपर्वतादि प्रतिनियत आकारवाले होने पर भी "आदिमत्" नहीं है। इसलिए हेतु व्यभिचारी बनता नहीं है। (४) इन्द्रियो का अधिष्ठाता होता है । अर्थात् इन्द्रियो का प्रयोग करनेवाला कोई स्वामि होता है। क्योंकि इन्द्रियां करण है। जैसे दंड-चक्रादि करण होने से उनका अधिष्ठाता प्रयोग करनेवाला स्वामी कुम्भकार (कुम्हार) होता है, वैसे इन्द्रियां भी करण होने से उनका अधिष्ठाता होना चाहिए और वही आत्मा है । इस तरह से आत्मा की सिद्धि होती है। (५) शरीर का भोक्ता विद्यमान है। क्योंकि शरीर भोग्य है। जैसे भोजन भोग्य होने से उसका भोक्ता होता है। वैसे शरीर भोग्य होने से उसका भोक्ता भी होना चाहिए और जो शरीर का भोक्ता है वही जीव (आत्मा) है। शंका : आपने उपरोक्त अनुमानप्रयोग में प्रयोजित किये हुए हेतु साध्य से विरुद्ध साधक होने से विरुद्ध है। क्योंकि आपको साध्य ऐसा आत्मा अमूर्त और नित्य इष्ट है। उसके स्थान पे मूर्त और अनित्य आत्मा की सिद्धि होती है। जैसे कि, उदाहरण के रुप में बताये गये घटादि का कर्ता कुम्हारादि मूर्त और अनित्य स्वभाववाले जगत में दिखाई दिये है। इसलिए जीव भी मूर्त और अनित्य ही सिद्ध होता है, जब कि आपको इससे विपरीत स्वभाववाला आत्मा इष्ट है। इसलिए हेतु साध्य से विरुद्ध के साधक होने से विरुद्ध हेत्वाभास से दूषित बनते है। समाधान : आपकी बात उचित नहीं है। हमारे हेतु व्यभिचारी भी नहीं है। क्योंकि संसारी जीव आठ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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