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________________ ७८/७०१ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन जैन (उत्तरपक्ष): आपका अनुमान प्रति अनुमान से बाधित होने से अपने साध्य की सिद्धि नहीं कर सकता है। इसलिए साध्यरुप विषय पक्ष में बाधित होने के कारण पक्षाभास दोष है । वह प्रतिपक्षी अनुमान यह है - ज्ञानादि देह के गुण नहीं है । क्योंकि देह (घट की तरह) मूर्त है और चाक्षुष प्रत्यक्ष का विषय है। इसलिए जैसे घट में रुपादि गुण मूर्त और चाक्षुषप्रत्यक्ष के विषय होने से देखे जा सकते है। वैसे ज्ञानादिगुण भी शरीर के ही हो तो, वे भी आंखो के द्वारा देख सकने की आपत्ति आयेगी। परतु ज्ञानादिगुणो को आंखो से देखा नहीं जा सकता। इसलिए वे शरीर के गुण नहीं है। इसलिए सिद्ध होता है कि, ज्ञानादि गुण प्रत्यक्ष होने से गुणी आत्मा भी प्रत्यक्ष ही है और इसलिए इस प्रकार से "मैं सुखी हूं" इत्यादि "अहम्' प्रत्ययरुप मानसप्रत्यक्ष से प्रसिद्ध आत्मा का लोप करनेवाला "आत्मा नहीं है।" ऐसा पक्ष रखता है, वह स्पष्ट रुप से प्रत्यक्ष विरुद्ध नाम का पक्षाभास है। जैसे कोई कान से सुने जाते शब्द को अश्रावण सिद्ध करने के लिए प्रयत्न करे तो, प्रत्यक्षविरुद्ध पक्षाभास दोष आता है, वैसे "मैं" रुप में प्रतिभास होने वाला आत्मा का लोप करना वह भी प्रत्यक्षविरुद्ध पक्षाभास है। तथा आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करनेवाले आगे बतायेंगे वे अनुमानो के होने पर भी आत्मा नहीं है ऐसा कहना वह अनुमानविरुद्ध भी है। जैसे "शब्द नित्य है।" वह कहना अनुमानविरुद्ध है। क्योंकि पक्ष शब्द अनित्य है। क्योंकि वह उच्चारण के बाद में उत्पन्न होता है। यह प्रतिपक्ष अनुमान से बाधित है। वैसे "आत्मा नहीं है।" वैसा कहना भी अनुमान विरुद्ध है। उपरांत छोटे बच्चे से लेकर स्त्री-पुरुष तक सभी संसार के जीवो को आत्मा का अनुभव होता है। उस आत्मा का निराकरण करना वह "सूर्य प्रकाशकर्ता नहीं है।" ऐसा कहने की तरह लोकविरुद्ध भी है। इस तरह से लोकप्रसिद्ध आत्मा का लोप करनेवाला हेतु लोकविरोधी होने के कारण अकिंचित्कर हेत्वाभास है। वैसे ही जैसे कोई पुत्र "मेरी माता वन्ध्या (बांझ ) है," ऐसा बोले तो खुद ही अपने वचन का विरोधी बनता है। क्योंकि अपनी माता वन्ध्या नहीं है उसका प्रबल साक्षी वह खुद ही है। इसी तरह से "मैं मैं नहीं हूं", ऐसा बोलनेवाला चार्वाक भी अपने वचन का विरोधी बनता है। ___ इस प्रकार उपरोक्त प्रतिपादित की हुई युक्ति से आत्मा का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता होने से "अत्यन्ताप्रत्यक्षत्व" हेतु भी असिद्ध है। तथानुमानगम्योऽप्यात्मा । तानि चामूनि-जीवच्छरीरं प्रयत्नवताधिष्ठितं, इच्छानुविधायिक्रिया-श्रयत्वात्, रथवत्-88/1 १ । E-89 श्रोत्रादीन्युपलब्धिसाधनानि कर्तृप्रयोज्यानि, करणत्वात, वास्यादिवत् २ । देहस्यास्ति विधाता, आदिमत्प्रतिनियताकारत्वात्, घटवत् । (E-88/1-89) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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