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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन ७७/७०० नित्यः शब्द इत्यादिवदनुमानविरुद्धोऽपि । आबालगोपालाङ्गनादिप्रसिद्धं चात्मानं निराकुर्वतः “नास्ति सूर्यः प्रकाशकर्ता” इत्यादिवल्लोकविरोधः । “अहं नाहं” चेति गदतः “माता मे वन्ध्या” इत्यादिवत् स्ववचनविरोधश्च । तथा प्रतिपादितयुक्त्यात्मनः स्वसंवेदनप्रत्यक्ष-त्वादत्यन्ताप्रत्यक्षत्वादिति हेतुरप्यसिद्ध इति स्थितम् । व्याख्या का भावानुवाद उपरांत ज्ञानादिगुण प्रत्यक्ष होने से गुणी ऐसा आत्मा भी प्रत्यक्ष ही मानना ज्यादा उचित है। अनुमान प्रयोग इस "अनुसार से है। आत्मा प्रत्यक्ष का विषय है, क्योंकि स्मृति, जिज्ञासा, चिकीर्षा (कार्य करने की इच्छा), जिगमिषा (जाने की-घूमने की इच्छा), संशयादि ज्ञान इत्यादि उसके गुणो का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है। अर्थात् स्मृतिआदि आत्मा के गुणो का स्वसंवेदनप्रत्यक्ष से अनुभव होता है।" (कहने का मतलब यह है कि "मैं स्मरण करता हूं", "मैं जानना चाहता हूं", इत्यादि मानसिक स्वसंवेदन प्रत्यक्ष में स्मृति इत्यादि गुणो का स्वरुप स्पष्टतया प्रतिभासित होता है। तथा) जिसके गुणो का प्रत्यक्ष होता है, वह गुणी भी अवश्य प्रत्यक्ष होता है। जैसे कि, घट के रुपादि गुणो का प्रत्यक्ष होने से गुणी घट भी प्रत्यक्ष होता है, वह प्रसिद्ध है। वैसे जीव के ज्ञानादिगुण भी स्वसंवेदनप्रत्यक्ष के विषय बनते है। इसलिए आत्मा का भी प्रत्यक्ष मानना ही चाहिए। शंका : आपका हेतु अनैकान्तिक है। क्योंकि आकाश के गुण शब्द का प्रत्यक्ष होता है। परंतु गुणी आकाश का प्रत्यक्ष होता नहीं है । (वैशेषिक मत में शब्द को आकाश का गुण माना हुआ है। उनके मत से हेतु में व्यभिचार बताया गया है।) समाधान : आपकी बात अयोग्य है। क्योंकि शब्द आकाश का गुण नहीं है। परंतु पुद्गल का गुण है, क्योंकि शब्द इन्द्रियग्राह्य है । जैसे, रुपादि इन्द्रियग्राह्य है, इसलिए पुद्गल के गुण है । वैसे शब्द भी श्रोत्रेन्द्रियग्राह्य होने से पुद्गल का ही गुण है । (आगे) पुद्गलतत्त्व की विचारणा में शब्द की पौद्गलिकता का विस्तार से समर्थन करेंगे। चार्वाक (पूर्वपक्ष) : "गुणो का प्रत्यक्ष होता होने से वह गुणो से अभिन्न ऐसे गुणी का भी प्रत्यक्ष होता है।" यह आपका नियम उचित है। परंतु उससे आत्मा की सिद्धि नहीं हो जाती है। क्योंकि ज्ञानादिगुण शरीर में ही उपलब्ध होते है। अर्थात् ज्ञानादिगुण शरीर के ही है। इसलिए शरीर ही ज्ञानादि गुणो का गुणी कहना उचित है । जैसे, रुपादि गुणो का गुणी घट है। वैसे ज्ञानादि गुणो का गुणी भी शरीर ही है। अनुमान प्रयोग इस अनुसार से है - "ज्ञानादि शरीर के ही गुण है। क्योंकि शरीर में ही उपलब्ध होते है । जैसे कि, गोरापन, दुबलापन, स्थूलपन इत्यादि शरीर में उपलब्ध होते है ।" अर्थात् जैसे गौरापन इत्यादि शरीर में उपलब्ध होता है। वैसे ज्ञानादि गुण शरीर में ही उपलब्ध होते है। इसलिए ज्ञानादिगुण शरीर के ही है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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