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________________ ७६ / ६९९ षड्दर्शन समुच्चय भाग - से अतिरिक्त कोई पदार्थ की सत्ता मानी नहीं गई और यदि पृथ्वी आदि पांच भूतो से अतिरिक्त ऐसे साम्यादिभाव स्वरुप सहकारि कारण की कल्पना करोंगे तो भूत से अतिरिक्त तत्त्व मानने की आपत्ति आयेगी, कि जो आपको इष्ट नहीं है । तथा साम्यादिभाव स्वरुप सहकारिकारण के रुप में भूतो की सत्ता मात्र को मानोंगे तो वे भूत सामान्य से जगत में सर्वत्र विद्यमान है। तो सहकारि कारण का अभाव है, वैसा किस तरह से कहा जा सकेगा ? इस प्रकार प्रथम कल्पना से भूतो का शरीर रुप में परिणमन होता है, वह बात स्वीकार की जा सके वैसी नहीं है । २, श्लोक, ४८-४९, जैनदर्शन अब " भूतो का शरीररुप में परिणमन होता है, उसमें अन्य वस्तु (तत्त्व) निमित्तभूत बनता है ।" यह द्वितीयपक्ष भी अयोग्य है। क्योंकि भूतो से अतिरिक्त तत्त्व का स्वीकार करने से आत्मा की सिद्धि हो जाने की आपत्ति आयेगी, कि जो आपको इष्ट नहीं है । “भूतो का शरीररुप में परिणमन होने में कोई कारण नहीं है, अपनेआप भूत शरीररूप में परिणमन पा जाते है ।" यह तीसरा विकल्प भी अयोग्य है। क्योंकि कारण के बिना भी भूत शरीररूप में परिणाम जाते हो तो सभी भूत हंमेशा शरीररूप में परिणाम पा जायेंगे । उपरांत कहा भी है कि... "जिसमें अन्यकारण की अपेक्षा होती नहीं है। वह या तो नित्य सत् होता है अथवा नित्य असत् होता है ।" अन्य कारण की अपेक्षा के कारण ही पदार्थो में कादाचित्क - कभी (होने) रुप भाव होता है । इस प्रकार आपके मत में भूतो का कायारुप में परिणमन होना संगत होता नहीं है । इसलिए जब शरीर ही बन सकता न हो तब उसमें श्वासाश्वास की क्रिया शुरु करना तो असंभवित ही है । इस अनुसार से किसी भी तरह से चैतन्य भूत का कार्य नहीं बन सकता है। चैतन्य तो आत्मा का गुण ही हो सकता है I Jain Education International किंच गुणप्रत्यक्षत्वादात्मापि गुणी प्रत्यक्ष एव । प्रयोगो यथा - प्रत्यक्ष आत्मा, स्मृतिजिज्ञासाचिकीर्षाजिगमिषासंशयादिज्ञानविशेषाणां तद्गुणानां स्वसंवेदन प्रत्यक्षत्वात् । इह यस्य गुणाः प्रत्यक्षाः स प्रत्यक्षो दृष्टः, यथा घट इति । प्रत्यक्षगुणश्च जीवः, तस्मात्प्रत्यक्षः । अत्राह परः - अनैकान्तिकोऽयं हेतुः, यत आकाशगुणः शब्द: प्रत्यक्षः, न पुनराकाशम् । तदयुक्तं, यतो नाकाशगुणः शब्दः किंतु पुद्गलगुणः, ऐन्द्रियकत्वात्, रूपादिवत् । एतच्च पुद्गलविचारे समर्थयिष्यते । अत्राह ननु भवतु गुणानां प्रत्यक्षत्वात्तदभिन्नत्वाद्गुणिनोऽपि प्रत्यक्षत्वम् । किंतु देह एव ज्ञानादयो गुणा उपलभ्यन्ते । अतः स एव तेषां गुणी युक्तः, यथा रूपादीनां घटः । प्रयोगो यथा - ज्ञानादयो देहगुणा एव तत्रैवोपलभ्यमानत्वात्, गौरकृशस्थूलत्वादिवत् । अत्रोच्यते - प्रत्यनुमानबाधितोऽयं पक्षाभासः । तच्चेदम्-देहस्य गुणा ज्ञानादयो न भवन्ति, तस्य मूर्तत्वाचाक्षुषत्वाद्वा, घटवत् । अतः सिद्धो गुणप्रत्यक्षत्वाद्गुणी जीवोऽपि प्रत्यक्षः । ततश्चाऽहंप्रत्ययग्राह्यं प्रत्यक्षमात्मानं निन्हुवानस्य अश्रावणः शब्द इत्यादिवत् प्रत्यक्षविरुद्धो नाम पक्षाभासः । तथा वक्ष्यमाणात्मास्तित्वानुमानसद्भावात् For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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