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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका के विषय में स्वतंत्र पुस्तक रूप से बहोत लिखा गया हैं । इसलिए यहाँ विस्तार नहीं करते है । यहाँ उल्लेख करना चाहिए कि, उनकी मध्यस्थता का गलत तरीके से मूल्यांकन करके उनको “समदर्शी" बताकर अपने संदिग्ध, मिलावटवाले विचारो को फैलाने का जो प्रयत्न कुछ लेखको ने किया है। वे लेखक वास्तव में मध्यस्थ या समदर्शी नहीं रहे है । महापुरुषों के जीवन के आदर्शों को यथावत् स्वीकार ने चाहिए । अपने स्वार्थ की पुष्टि के लिए दुरुपयोग करना नहीं चाहिए। क्योंकि, ऐसी स्वार्थपोषक प्रवृत्ति स्व-पर को अहितकर बनती है । टीकाकारश्री : तार्किक रत्न पू.आ.भ. श्री गुणरत्नसूरिजी महाराजा प्रस्तुत ग्रंथ के टीकाकार हैं । वे पू.आ.भ. श्री देवसुंदरसूरिजी के शिष्य थे । टीकाकारश्री वादविद्या में कुशल थे और वाद में अनेक प्रतिपादिओं को जीते थे । उनकी - श्रीमद् की प्रतिभा स्वदर्शन और परदर्शन में सर्वत्र व्याप्त थी । उनकी प्रस्तुत ग्रंथ के उपर की “तर्करहस्यदीपिका" नाम की टीका में प्रत्येक दर्शन की पर्याप्त विचारणा की गई है । मूलग्रंथकार के श्लोको का अनुसरण करके प्रत्येक दर्शनो का अति सरल भाषा में परिचय कराया हैं । इसके सिवा भी टीकाकारश्री ने दूसरे अनेक ग्रंथो की रचना की है । उसकी आंशिक नोध यहाँ प्रस्तुत है । (१) कल्पान्तर्वाच्य : सं. १४५७ में विरचित इस ग्रंथ में पर्युषण पर्व का महिमा, कल्पसूत्र के वांचन का प्रभाव और श्री जिनेश्वरों के चरित्र इत्यादि का वर्णन हैं । (२) क्रियारत्न समुञ्चय ग्रंथ : सं. १४६६ में समाप्त हुए इस ग्रंथ को व्याकरण का ग्रंथ माना जाता है । कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरिजी म. के 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' के आधार पर धातुओं का संकलन इस ग्रंथ में किया गया हैं । उसमें सर्व काल के धातुओं के रूप किस प्रकार से होते हैं वह उदाहरण सहित बताये गये हैं । सर्वप्रथम कालो के विभाग का स्पष्टीकरण करके 'भू' आदि गणो के क्रम से गणो की धातुओं के रूप निर्दिष्ट किये हैं । उसके बाद सौत्रधातु और नामधातु के रूप दिये हैं । (३) चतुःशरणादि प्रकीर्णकादिचूर्णि : चतुः शरण, आतुर प्रत्याख्यान, संस्तारक और भक्त परीक्षा - इन चार प्रकीर्णकों की (आगमो की) अवचूरि (कि जिसको विषमपद विवरण भी कहा जाता है, वह) रची है । (४) क्षेत्रसमास अवचूर्णि : पू.आ.भ.श्री सोमतिलकसूरिजी विरचित क्षेत्रसमास ग्रंथ के उपर टीकाकारश्री ने संक्षिप्त टीका रूप अवचूणि की रचना की हैं । (५) वासोंतिक वितंडा विडंबन प्रकरण : मूल परंपरा से अलग पडे हुए अंचलगच्छ की कुछ मान्यताओं का निराकरण करने के लिए इस ग्रंथ की रचना टीकाकारश्री ने की है । (६) षड्दर्शन समुञ्चय की तर्करहस्य दीपिका टीका : यह ग्रंथ यहाँ प्रस्तुत ही हैं । इस ग्रंथ में बौद्धोदि छ: दर्शनो का परिचय है और जैनदर्शन की टीका में तर्कपूर्ण दलीलो द्वारा अनेक वादो की समीक्षा की गई हैं। षड्दर्शन - समुञ्चय की अन्य टीकायें : पू.आ.भ.श्री सोमतिलकसूरिजीने इस ग्रंथ के ऊपर "लघुवृत्ति" की रचना की हैं । तदुपरांत पू.वाचक श्री उदयसागरजी कृत 'अवचूरि' और श्री ब्रह्मशांतिदास कृत 'अवचूर्णि' उपलब्ध होती है । इन सभी कृतिओं को "षड्दर्शन सूत्र संग्रह एवं षड्दर्शन विषयक कृतयः" नाम के (इस ग्रंथ के साथ प्रकाशित होनेवाले) ग्रंथ में संगृहित किये है । विशेष में प्रस्तुत दो भाग में विभक्त हिन्दी भावानुवाद (हिन्दी व्याख्या) में.... यहाँ उल्लेखित विस्तृत भूमिका, संक्षिप्त एवं विस्तृत विषयानुक्रम तथा परिशिष्टो में साक्षीपाठो की सूचि, पारिभाषिक शब्दानुक्रमिका (सार्थ), वेदांत दर्शन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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