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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
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विनयपूर्वक साध्वीजी को श्लोक का अर्थ पूछते है । जैनशासन की मर्यादा के संवाहक साध्वीजी ने औचित्यपूर्वक बताया कि, "महानुभाव ! पुरुष को श्लोक और श्लोक का अर्थ देने का अधिकार साध्वीजी का नहीं है । इसलिए मैं आपको इसका अर्थ नहीं कह सकूँगी । आप पास में भाईयों के उपाश्रय में बिराजमान पू. धर्माचार्य श्री जिनभद्राचार्यजी के पास से श्लोक का अर्थ प्राप्त कर सकते हैं ।" सत्य के अर्थी राजपुरोहित पू. धर्माचार्य के पास पहुँच गये और अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उन्हों ने श्री जैनाचार्य के पास से जैनदीक्षा को अंगीकार की । सत्य के अर्थी ऐसे वे राजपुरोहित गृहस्थी मिटकर जैन मुनि श्री हरिभद्रविजयजी बने। पू. धर्माचार्य की पावन निश्रा में जिनागमो के अभ्यास का प्रारंभ किया । क्षयोपशम तो था ही, उसे यथार्थ तेज दिया जाने से वह क्षयोपशम खील उठा । जैनदर्शन के पारगामी बने । जिनागमो का अभ्यास करते करते जैनदर्शन के उपर अपार बहुमानभाव प्रकट हुआ । एक समय के कट्टर द्वेषी अब जैनदर्शन के उपर अपार बहुमानवाले बने है और जिनागम पाने का आनंद और प्राप्त हुई सनाथता को प्रकट करते हुए एक स्थान पर लिखते हैं कि
कथं अम्हारिसा प्राणी दुसमादोसदूसिया । हा ! अणाहा कहं हुंता जई न हुतो जिणागमो ।।१९८२) - दुषमाकाल के दोष से दोषित बने हुए हमारे जैसे अनाथ जीवो का, यदि जिनागम न मिले होते तो क्या होता ?
श्री जिनागमो का ठोस अभ्यास करने के बाद लेखन प्रवृत्ति प्रारंभ हुई । उन्हों ने - श्रीमद्ने १४४४ ग्रंथो की रचना की थी । उन्हों ने - श्रीमद्ने जिनागमो के उपर टीकायें रची है, कथाग्रंथो का भी आलेखन किया है, दर्शन के ग्रंथ भी रचे है, योग ग्रंथो की भी अमूल्य भेट दी है । ज्योतिष के ग्रंथ भी लिखे हैं और स्तुतिग्रंथो का भी सर्जन किया हैं । संक्षिप्त में, उन्होंने - श्रीमद्ने जैनवाङ्मय के विविध क्षेत्रो में साहित्य की भेट देकर जैन साहित्य को समृद्ध बनाया है । जैनदर्शन के अनुयायी आज भी हृदयपूर्वक स्वीकार करते हैं कि, यदि पू.आ.भ. श्री हरिभद्रसूरिजी महाराजा और न्यायाचार्य पू. महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजा ने सेंकडो ‘प्रकरण ग्रंथ' न रचे होते तो जरूर से हम जिनागमो के रहस्यो से वंचित रह गये होते । दोनों महापुरुषो के ग्रंथो में जिनागमो के विषयो के रहस्यो का अद्भूत शैली से उद्घाटन हुआ है । इसलिए ही प्रभु वीर की ७७वीं पाट को सुशोभित करनेवाले व्याख्यान वाचस्पति तपागच्छाधिराज पूज्यपाद आचार्य देवेश श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा अपने सुविशाल गच्छ को और अनुयायीओं को यह महापुरुष के, ग्रंथराशी का पठन-पाठन करने के लिए बारबार प्रेरणा देते थे ।
वे पूर्वकाल के मान-प्रतिष्ठा-पांडित्य आदि सब का त्याग करके जिनागमो के आराधक बने, पारदर्शी बने, पारंगत बने, प्रत्येक दर्शन की मान्यताओं का परामर्श किया और उसकी मान्याताओं की गहराई तक गये और स्याद्वाद शैली से उसका मूल्यांकन करके पूर्णरूप से मध्यस्थता को प्रदर्शित करते हुए कहते हैं कि...
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।। (लोकतत्त्व-१/३८)
उनके १४४४ ग्रंथो में से हाल में ७० ग्रंथ उपलब्ध है । उसकी सूची “जैनदर्शन का ग्रंथकलाप" नाम के परिशिष्ट में संगृहित की हुई है । उसमें से षड्दर्शन समुञ्चय, शास्त्रवार्ता समुच्चय, अनेकांत जयपताका आदि ग्रंथ दार्शनिक जगत में अतिप्रसिद्ध है । 'षड्दर्शन समुञ्चय' ग्रंथ को तो कुछ युनिवर्सिटीयों ने स्नातक-स्नातकोत्तर कक्षा की परीक्षा के अभ्यास क्रम में (कोर्स में) स्थान दिया है । ८७ श्लोक प्रमाण ग्रंथ में प्रत्येक दर्शन का सुंदर परिचय दिया है । उनके - श्रीमद के ग्रंथो का परिचय पूर्वनिर्दिष्ट परिशिष्ट में दिया गया है । उनके - श्रीमद् के जीवन और लेखन प्रवृत्ति 182. संबोध प्रकरण ।
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