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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
श्री माधव सरस्वती ने "सर्वदर्शन कौमुदी" नाम का ग्रंथ लिखा है । (जो त्रिवेन्द्रम् संस्कृत ग्रंथालय में से ई. १९३८ में प्रकाशित हुआ हैं।) इस ग्रंथ में वैदिक और अवैदिक ऐसे दो दर्शन विभाग करके वर्णन किया गया हैं । उनके अनुसार से वैदिक दर्शनो में तर्क, तंत्र और सांख्य, ये तीन दर्शन हैं । तर्क से नैयायिक और वैशेषिक अभिप्रेत हैं । तंत्र से शब्दमीमांसा (व्याकरण) और अर्थमीमांसा अभिप्रेत हैं । अर्थ मीमांसा का दो प्रकार से विभाजन हैं - (१) कर्मकांड विचार (पूर्वमीमांसा) और (२) ज्ञानकांडविचार (उत्तर मीमांसा) । पूर्वमीमांसा के दो विभागो का प्ररूपण किया हैं । (१) भाट्ट और (२) प्राभाकर । सांख्यदर्शन के दो भेदों का निर्देश है । सेश्वरवादी योगदर्शन और निरीश्वरवादी सांख्यदर्शन।
अवैदिकदर्शनो में बौद्ध, चार्वाक और आर्हत (जैन), इन तीन की गणना की हैं । बौद्ध की वैभाषिकादि चार निकाय ग्रहण की है । क्रम में प्रथम वैशेषिक दर्शन का निरुपण किया गया हैं ।
श्री मधुसूदन सरस्वती द्वारा विरचित "प्रस्थानभेद" भी दर्शन संग्राहक ग्रंथ की श्रेणी में कहा जा सके, ऐसा हैं। उसमें भी वैदिक और अवैदिक दर्शन विभाग करके, प्रत्येक का विवेचन किया है । बौद्ध की चार निकाय, दिगंबर (जैन) और चार्वाक, इन छ: को अवैदिक कहे हैं और न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा ये छ: प्रसिद्ध वैदिक दर्शन ग्रहण किये है । उसके सिवा पाशुपत और वैष्णव संप्रदाय को भी वैदिक दर्शन में ही गिने हैं । - ग्रंथकार श्री ___ प्रस्तुत ग्रंथ के रचयिता समर्थ शास्त्रकार शिरोमणी पू.आ.भ. श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराजा १४४४ ग्रंथ के रचयिता के रूप से दर्शन जगत में प्रसिद्ध है । उनकी जैनदीक्षा के पहले की गृहस्थ अवस्था भी जानने जैसी है। श्री हरिभद्र पूरोहित उनका गृहस्थावस्था का नाम हैं । वे चौदह विद्या के पारगामी थे । चित्तोडगढ के राजपुरोहित पद से विभूषित थे, ज्ञान के साथ अहंकार और सत्य की आकंठ जिज्ञासा भी थी । सत्यार्थीपन के कारण ही “जो वस्तु (विषय) मुझे समझ में न आये और मुझे वह विषय जो व्यक्ति समजाये उसका मुझे शिष्य हो जाना" ऐसी प्रतिज्ञा उन्होंने अंगीकार की थी । फिर भी गृहस्थावस्था में जैनदर्शन के कट्टर द्वेषी थे । “हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेजिनमंदिरम्" - हाथी के पैर तले कुचल के मर जाना किन्तु (हाथी से बचने के लिए) जिनमंदिर में न जाना - प्रवेश न करना ऐसी उनकी मानसिकता थी और जैनदर्शन प्रति तीव्रद्वेष था, फिर भी सत्य के अर्थी थे । उसके योग से ही जैनदर्शन को प्राप्त करते है और पचाते भी है।
एकबार उसके जीवन में जैनदर्शन की तात्त्विक दुनिया का स्पर्श हो जाय - अनुभव हो जाय, ऐसी एक घटना आकार लेती है । सुंदर भवितव्यतावश सत्य के अर्थी श्री हरिभद्र पुरोहित को जैनदर्शन के जैनाचार्य की निकट में आने का प्रसंग खडा होता हैं । एकदा राजपुरोहित राजदरबार की ओर जा रहे थे । बीच में एक उपाश्रय (धर्मस्थान) आता था, जिसमें साध्वीवृंद की धर्माराधना चलती थी । उस उपाश्रय के पास में से गुजरते वक्त शिष्याओं से परिवृत्त साध्वीजी श्री याकिनी महत्तरा के मुख में से कंठस्थ होते किसी सूत्र के अनजाने शब्दो की ध्वनि श्री हरिभद्र पुरोहित के कान से टकराती है । कंठस्थ होते १८१) श्लोक को सुनकर राजपुरोहित वही स्थल पे खडे रह जाते है और अर्थ का चिंतन करने लगते हैं । परन्तु अर्थघटन नहीं कर सकते है, जीवन में आज पहेली बार ऐसी घटना हुई है कि, वे किसी सूत्र के अर्थघटन के विषय में उलझन में पड़ गये हो ! सत्य के अर्थी उनको अपनी प्रतिज्ञा याद आती है । वे तुरंत साध्वीजी के उपाश्रय में जाते हैं और 181. कंठस्थ होता श्लोक - चक्कीदुर्ग हरि पणगं । पणगं चक्कीणं केसवो चक्की । केसव चक्की केसव । दुचक्की केसी अ चक्की अ ।।
यह अपसर्पिणी में भरत क्षेत्रमा बार चक्रवर्ती और नव वासुदेव हुए ऐसा भाव इस श्लोक में है ।
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