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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
इस श्रेणी में षड्दर्शन समुञ्चय अवचूर्णि, षड्.समु.चूर्णि. लघुषड्दर्शन समु. आदि ग्रंथ भी आते हैं । श्री जैनाचार्यो और श्री जैनमुनिवरो ने दूसरे अनेक दार्शनिक ग्रंथो की रचना की है कि जिसमें जैनदर्शन के दार्शनिक विषयो के प्रतिपादन में अन्य दर्शनो के मतो को ग्रहण करके उसकी समीक्षा की हो । अर्थात् षड्दर्शन विषयक अनेक कृतियाँ
जैनदर्शन के साहित्य में उपलब्ध है । सूत्रात्मक, गद्यात्मक और कारिकाबद्ध ऐसे तीनों प्रकार के दार्शनिक ग्रंथ उपलब्ध हैं । जैनदर्शन के ३ सूत्रात्मक ग्रंथ और २२ पद्यात्मक - गद्यात्मक ग्रंथो का अन्तर्भाव “षड्दर्शन सूत्र संग्रह एवं षड्दर्शन विषयक कृतयः" नाम के ग्रंथ में किया है । पहले बताये हुए दर्शन संग्राहक सभी ग्रंथो का अन्तर्भाव भी उसमें ही किया गया है । प्रस्तुत ग्रंथ में षड्दर्शन समुच्चय ग्रंथ की तार्किक रत्न पू.आ.भ.श्री गुणरत्नसूरिजी कृत "तर्क रहस्य दीपिका" नामकी बृहद्वृत्ति को सानुवाद संकलित की होने से उसका अन्तर्भाव इस ग्रंथ में किया नहीं है । ___ पू.आ.भ. श्री सोमतिलकसूरिजी म. कृत लघुवृत्ति का अन्तर्भाव पूर्वनिर्दिष्ट ग्रंथ में किया है । दर्शन जगत में अन्य भी दर्शन संग्राहक ग्रंथ उपलब्ध है । प्रायः प्रत्येक दर्शनकारो ने ऐसे ग्रंथों की रचना की है । उनका भी आंशिक परिचय अब प्राप्त करेंगे।
अद्वैत वेदांत के पुरस्कर्ता श्री शंकराचार्य ने "सर्वसिद्धांत संग्रह" अथवा "सर्वदर्शन सिद्धांत संग्रह" (कि जो ई. १९०९ में मद्रास सरकार के प्रेस से श्री रंगाचार्य द्वारा संपादित होकर प्रकाशित हुआ है वह) ग्रंथ दर्शनसंग्राहक ग्रंथो की श्रेणी में आता हैं ।(१७९) इस ग्रंथ में वैदिक और अवैदिक ऐसे दर्शन विभाग है और पूर्व-पूर्व दर्शन उत्तर-उत्तर दर्शन द्वारा निराकरण किया गया है । इस ग्रंथ में दर्शनो का क्रम इस प्रकार से हैं । (१) लोकायित पक्ष, (२) आहेत (जैन) पक्ष, (३) माध्यमिक, (४) योगाचार, (५) सौत्रान्तिक, (६) वैभाषिक, (७) वैशेषिक, (८) नैयायिक, (९) प्रभाकर (गुरुमत), (१०) कुमारिल मत (भाट्ट मत), (११) सांख्यदर्शन, (१२) पतंजलि (योग) दर्शन, (१३) वेदव्यास, (१४) वेदांत । (इन दर्शनो में से वेदव्यास के दर्शन के नाम से जो पक्ष उपस्थित किया गया है, वह महाभारत का पक्ष हो ऐसा मालूम होता हैं।) यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, इस ग्रंथ में आर्हतपक्ष में जो जैनदर्शन को उपस्थित किया हुआ है और उसमें जो बाते बताई है, वह भ्रमपूर्ण हैं । न जाने उनके सामने जैनदर्शन का कौन-सा ग्रंथ होगा ! जैनदर्शन की जो मान्यता ही नहीं है उसे जैनदर्शन के नाम से लिखी गई है । __ श्री माधवाचार्यने (ई. १३००) "सर्वदर्शन संग्रह" नाम के ग्रंथ की रचना की हैं, उसका दर्शन संग्राहक ग्रंथ की श्रेणी में अन्तर्भाव होता है । इस ग्रंथ में भी पूर्व-पूर्व दर्शन का उत्तर-उत्तर दर्शन द्वारा निराकरण किया गया है और अंत में अद्वैतवाद ही सम्यक् हैं, ऐसा प्रतिपादन किया गया हैं । उसमें इस क्रम से प्रतिपादन हुआ है - (१) चार्वाकदर्शन, (२) बौद्धदर्शन (चार भेद), (३) दिगंबर (आर्हतदर्शन), (४) रामानुज (विशिष्टाद्वैतमत), (५) पूर्णप्रज्ञदर्शन, (६) नकुलीपाशुपतदर्शन (७) माहेश्वर (शैव दर्शन), (८) प्रत्यभिज्ञादर्शन, (९) रसेश्वरदर्शन, (१०) औलुक्यदर्शन (वैशेषिक दर्शन), (११) अक्षपाददर्शन (नैयायिक दर्शन), (१२) जैमिनिदर्शन, (१३) पाणिनिदर्शन, (१४) सांख्यदर्शन, (१५) पातंजलदर्शन और (१६) शांकरदर्शन (वेदांत दर्शन)।
यहाँ उल्लेखनीय है कि, (१८०) श्री जैनाचार्य विरचित 'द्वादश नयचक्र' ग्रंथ में भी इसी शैली से प्रतिपादन हुआ है। वह भी दर्शनसंग्राहक ग्रंथ की श्रेणी में ही आता है । परन्तु 'सर्वदर्शन संग्रह' ग्रंथ में अद्वैत को ही अंतिम सत्य कहा गया है। जब कि, “नयचक्र" में सर्वदर्शनो के समूह को अनेकांतवाद कहा है और प्रत्येक दर्शन को एकांत कहा हैं। 179. यह उल्लेखनीय है कि, 'सर्वसिद्धांतसंग्रह' ग्रंथ श्री शंकराचार्यजी की कृति होने में संदेह है । फिर भी वह श्री माधवाचार्य कृत
सर्वदर्शन संग्रह से प्राचीन तो है ही । 180. यह दर्शन संग्राहक चेप्टर में जो माहिती प्रदान की जा रही है वह श्री महेन्द्रकुमार जैन द्वारा संपादित “षदर्शन समुच्चय" हिन्दी अनुवाद ग्रंथ की प्रस्तावना में से साभार संगृहीत की है ।
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