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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका - योगदर्शन : योगदर्शन के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं । योगदर्शन की दार्शनिक विचारधारा सांख्यदर्शन जैसी ही है । सांख्य दर्शन जो २५ तत्त्व मानता है, वही योगदर्शन मानता है - फरक केवल इतना ही है कि सांख्यदर्शन निरीश्वरवादी है और योगदर्शन समाधि की सिद्धि के लिए ईश्वर को मानता है । ___ पुरुष और प्रकृति दो मुख्य तत्त्व है । उसका स्वरूप सांख्यदर्शन में देखा ही है । पुरुष और प्रकृति के संयोग से संसार है और विवेकख्याति के बल से संयोग की विनिर्मुक्ति होने से आत्मा का मोक्ष होता है । प्रकृति और पुरुष का भेदज्ञान (विवेकख्याति) हो, तो ही आत्मा का मोक्ष हो सकता हैं । भेदज्ञान की प्राप्ति के लिए "योग" की साधना आवश्यक है। योग, योग की साधना, योग के अंतराय, योग के आठ अंग और उससे प्राप्त होती सिद्धिओं का विशद वर्णन योगदर्शन का प्रतिपाद्य विषय है । "अष्टांगयोग की साधना" यह योगदर्शन की अपनी विशिष्ट साधना प्रक्रिया है, कि जो अन्य दर्शनकारो ने भी आवकार्य मानी हैं । प्रस्तुत ग्रंथ में “योगदर्शन" का प्रतिपादन नहीं किया गया है । फिर भी योगदर्शन के सारभूत पदार्थो को परिशिष्ट में संगृहीत करके इस ग्रंथ के भाग-१ में रखा गया है । उसमें ईश्वर का स्वरूप, योग का स्वरूप, समाधि के दो प्रकार, पाँच प्रकार की विक्षेपादि चित्तवृत्तियाँ, अविद्यादि पाँच प्रकार के क्लेश, विपर्ययादि पाँच प्रकार की वृत्तियाँ, योग के अंतराय, योग के यमादि आठ अंग आदि का प्रतिपादन किया गया है । योगदर्शन के ग्रंथ और ग्रंथकार : योगदर्शन के प्रणेता महर्षि पतंजलि ने “योगसूत्र" नाम के सूत्रात्मक ग्रंथ की रचना करके उसमें योगदर्शन के सिद्धांतो का प्रतिपादन किया हैं । योगसूत्र में चार पाद है, जिनकी सूत्रसंख्या १९५ है । प्रथम (समाधि) पाद में समाधि का स्वरूप और उसके भेद, चित्त और उसकी वृत्ति का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है । द्वितीय (साधन) पाद में क्रियायोग, क्लेश और उसके पाँच भेद, क्लेश मुक्ति के साधन, हेय हेतु, हान तथा हानोपाय, योग के आठ अंग आदि विषयो का निरूपण किया गया है । तृतीय (विभूति) पाद में धारणा, ध्यान और समाधि तथा उसके अनंतर योग अनुष्ठान से उत्पन्न होनेवाली सिद्धिओं का वर्णन किया गया है । चतुर्थ (कैवल्य) पाद में समाधिसिद्धि, निर्माणचित्त, विज्ञानवाद-निराकरण, कैवल्य का निर्णय किया गया है । पातंजल योगदर्शन के उपर "व्यासभाष्य" अत्यंत प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है । उसमें योगसूत्रो के गूढ रहस्यो को सुंदर तरीके से खोले गये है । व्यासभाष्य भी स्वयं अति गूढार्थ ग्रंथ है । उसके उपर श्रीवाचस्पति मिश्र ने "तत्त्ववैशारदी" और श्री विज्ञानभिक्षु ने “योगवार्तिक" टीका की रचना की है । योगसूत्रो के उपर अन्य भी अनेक टीकायें है । (१) श्री भोजकृत "राजमार्तंड" (भोजवृत्ति), (२) श्री भावगणेश की वृत्ति, (३) श्री रामानंद की “मणिप्रभा" टीका, (४) श्री अनंत पंडित की "योगचन्द्रिका" वृत्ति, (५) श्री सदाशिवेन्द्र सरस्वती कृत "योगसुधारक" टीका, (६) श्री नागोजी भट्ट कृत लघ्वी और बृहती टीका प्रसिद्ध है । श्री राजमार्तन्ड की भोजवृत्ति अति लोकप्रिय है । उसके उपर न्यायविशारद - न्यायाचार्य पद प्रतिष्ठित महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजा ने "प्रक्रिया" नामक टीका रची है । उस प्रक्रिया में योगसूत्रो और राजमार्तण्ड वृत्ति की समीक्षात्मक विचारणा पुरस्कृत हुई है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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