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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
(२)
-: ब्रह्मसूत्र के प्रसिद्ध भाष्यकार :नाम समय भाष्यनाम
सिद्धान्त श्री शंकराचार्य (७८८-८२० ई) शारीरिक भाष्य निर्विशेषाद्वैत (केवलाद्वैत) श्री भास्कराचार्य (१०००)
भास्कर भाष्य
भेदाभेद (३) श्री रामानुजाचार्य (११४०)
श्रीभाष्य
विशिष्टाद्वैत (४) श्री माध्वाचार्य (१२३८)
पूर्वप्रज्ञभाष्य
द्वैत श्री निम्बार्काचार्य (१२५०)
वेदांतपारिजात द्वैताद्वैत श्रीकंठ (१२७०) शैव भाष्य
शैव-विशिष्टाद्वैत श्रीपति (१४००) श्रीकरभाष्य
वीरशैव-विशिष्टाद्वैत श्रीवल्लभाचार्य (१४७६-१५०४) अणुभाष्य
शुद्धाद्वैत श्रीविज्ञानभिक्षु (१६००)
विज्ञानामृत
अविभागाद्वैत (१०) श्रीबलदेव
(१७२५) गोविंदभाष्य
अनित्य भेदाभेद । उपरोक्त सिद्धांतो में श्री शंकराचार्य का निर्विशेषाद्वैत - केवलाद्वैत सिद्धांत अधिक प्रचलित हैं। प्रस्तुत ग्रंथ के परिशिष्ट-१ में पूर्वोक्त सभी सिद्धांतो का प्रतिपादन किया है । श्री शंकराचार्य के केवलाद्वैत सिद्धांत का और उनकी अन्य मान्यताओं का विस्तार से निरूपण किया हैं । ब्रह्म का स्वरूप, ईश्वर का स्वरूप, जीव का स्वरूप, ईश्वर और जीव, अविद्या का स्वरूप, सृष्टि प्रक्रिया, अध्यास विचारणा, अध्यास की आवश्यकता, अविद्या के दो प्रकार, तीन प्रकार की सत्ता, प्रमाणविचार, 'तत्त्वमसि' आदि महावाक्यों का विवरण, मोक्षस्वरूप, ब्रह्म साक्षात्कार के साधन, बद्ध जीव की तीन अवस्था, जीवन्मुक्त और विदेहमुक्त के लक्षण, आभासवाद आदि तीन वाद, ज्ञान की सात भूमिका आदि अनेक विषयो की विचारणा उसमें की गई हैं । _ "ब्रह्म ही सत्य है, जगत् मिथ्या हैं" यह श्री शंकराचार्य का प्रसिद्ध सिद्धांत अद्वैत दर्शन का पुरस्कर्ता हैं । वे एकमेव ब्रह्म की ही सत्ता को ही स्वीकार करते है और ब्रह्म के सिवा अन्य पदार्थो की सत्ता स्वीकार नहीं करते हैं ।
वेदांत के सभी संप्रदायो को और उसकी मान्यताओं को जानने-समजने के लिए तत् तत् संप्रदाय के ग्रंथो का अवगाहन करने पडे। परिशिष्ट-१ में भिन्न-भिन्न ग्रंथों के आधार पर तत् तत् संप्रदायों के मुख्य मुख्य सिद्धांतो को समजाने का प्रयत्न किया है। जो दार्शनिक अभ्यासुओं को दार्शनिक अभ्यास के समय पूर्वोत्तर पक्ष को समजने में अवश्य सहायक बनेगा। विस्तार भय से उन सभी विषयो की विचारणा यहाँ नहीं करते है । केवल वेदांत-दर्शन के ग्रंथो-ग्रंथकारो की माहिती (कि जो परिशिष्ट में संपादित नहीं हुई, वह) देंगे । - अद्वैत वेदांत के ग्रंथ-ग्रंथकार -
वेदांत का मूल आधार ब्रह्मसूत्र है । उसके चार अध्याय है और प्रत्येक अध्याय के चार पाद है । श्री शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र के उपर 'शारीरिक भाष्य' की रचना की है और उसमें अपने ‘निर्विशेषाद्वैत' सिद्धांत की प्रस्थापना की है । श्री शंकराचार्य ने उसके सिवा 'विवेक चूडामणी' आदि अनेक ग्रंथो की रचना की हैं । उनके प्रत्येक ग्रंथ में अद्वैत सिद्धांत ही पुरस्कृत हुआ है ।
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