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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका (३) अपौरुषेयवाद : मीमांसक वेद को पौरुषेय मानते नहीं, परन्तु अपौरुषेय मानते हैं(१७५) अर्थात् नित्य मानते हैं। कोई व्यक्ति को वेद के वक्ता के रूप में मानते नहीं है । उसकी विचारणा प्रस्तुत ग्रंथ में तथा परिशिष्ट में की गई हैं । उसमें मीमांसको की जो युक्तियाँ है उसे बताकर उनके इस सिद्धांत को बताया गया है। इस भूमिका में भी पहले स्पष्टता की ही हैं । __ मीमांसको के मतानुसार धर्म का प्रतिपादन केवल अपौरुषेय वेद ही करता हैं । इसलिए धर्म के लिए वेदो की ही धिक हैं । इसलिए मीमांसको ने वेद के विषयविभाग का विस्तार से विवेचन किया हैं । वेद के पाँच प्रकार के विषय हैं । (१) विधि, (२) मंत्र, (३) नामधेय, (४) निषेध और (५) अर्थवाद(१७६) (इन पाँच विषय विभाग के विवेचन के लिए श्री आपदेव विरचित 'मीमांसान्याय प्रकाश' और श्री लौंगाक्षि भास्कर प्रणित 'अर्थसंग्रह' ये दो स्वतंत्र ग्रंथो की रचना हुई हैं । उसमें वेद के यज्ञ संबंधी विरोधो का परिहार करने के लिए न्याय दिये गये है और उन न्यायो के द्वारा परस्पर के विरोधो का परिहार करके वेद वाक्यो का समन्वय किया गया हैं ।) (४) मीमांसको के मत में जगत् : हमारी इन्द्रियों द्वारा जगत की जिस तरह से उपलब्धि होती है, वही जगत का सत्यस्वरूप है ।(१७७) इस संसार में तीन प्रकार की वस्तुओं का ज्ञान होता हैं । (१) शरीर - जिसमें रहकर आत्मा सुख-दुःख का अनुभव करता हैं। (भोगायतन) । (२) इन्द्रियाँ-जिसके द्वारा आत्मा सख-द:ख का भोग करता है (भोग साधन) । (३) पदार्थ : जिसका भोग आत्मा करता है (भोगविषय) । इन तीन से युक्त नाना स्वरूप का यह संसार अनादि अनंत है । मीमांसक मूल जगत की सृष्टि तथा प्रलय नहीं मानते हैं । इस तरह से मीमांसा दर्शन जगत को सत्य मानता है और वेद द्वारा प्रतिपादित स्वर्ग, नरक, अदृष्ट अनेक अतीन्द्रिय विषयो की भी सत्ता मानता हैं । - मीमांसक दर्शन के ग्रंथ - ग्रंथकार : श्री जैमिनिऋषि मीमांसा दर्शन के सूत्रकार है । (परन्तु प्रवर्तक नहीं हैं।) वह जैमिनि सूत्र के नाम से प्रसिद्ध हैं। उसके १६ अध्याय हैं । जिसमें से प्रथम १२ अध्याय "द्वादशलक्षणी" के नाम से और अन्तिम चार अध्याय "संकर्षण कांड" या "देवता कांड" के नाम से प्रख्यात है । द्वादशलक्षणी के उपर वृत्ति, भाष्य और वार्तिक की रचना हुई है । श्री उपवर्ष प्राचीन वृत्तिकार हैं । उन्हों ने इस ग्रंथ के उपर वृत्ति रची थी । द्वादशलक्षणी के उपर श्री शबरस्वामी ने 'शाबरभाष्य' की रचना करके मीमांसा के पदार्थो का विस्तृत प्रतिपादन किया हैं । - भाट्टमत के ग्रंथ - ग्रंथकार : __ भाट्टमत के प्रवर्तक कुमारिल भट्ट के श्लोकवार्तिक (कारिकाबद्ध) और श्लोकवार्तिक (गद्यात्मक) और टुप्टीका, ये तीन ग्रंथ में भाट्टमत की विस्तार से प्ररूपणा की गई है । श्लोकवार्तिक में बौद्धो के सिद्धांतो का मार्मिक खंडन प्रस्तुत हैं। श्री कुमारिल भट्ट के शिष्य श्रीमंडन मिश्र थे । वे श्री शंकराचार्य के साथ हुए वाद में पराजित होने से उनके शिष्य बनकर बाद में श्री सरेश्वराचार्य के नाम से विख्यात हए थे । उनके प्रसिद्ध ग्रंथ है - (१) विधिविवेक (विधिविवेक अर्थ का विचार) (२) भावनाविवेक (आर्थी भावना का विचार) (३) विभ्रम-विवेक, (पंचविध भ्रान्ति तथा ख्यातियाँ की व्याख्या), (४) मीमांसा सूत्रानुक्रमणी (मीमांसा सूत्रो का कारिकाबद्ध संक्षेप), (५) स्फोटसिद्धि, (६) ब्रह्मसिद्धि 175. मीमांसा सूत्र १/१/२७-३२ तथा शाबरभाष्य । 176. अथ को वेद इति चेत् । उच्यते - अपौरुषेयं वाक्यं वेदः । स च विधि मन्त्र-नामधेय-निषेधार्थवादभेदात् पञ्चविधः (अर्थसंग्रह) (मीमांसापरिभाषा-पृ. ३) । 177. तस्माद्यद् गृह्यते वस्तु येन रूपेण सर्वदा। तत्तथैवाभ्युपेतव्यं सामान्यमथ वेतरत् (श्लोकवार्तिक, पृ. ४०४) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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