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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका श्री कुमारिल भट्ट प्रमाण के छः प्रकार मानते हैं । (१) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान, (३) शाब्द, (४) उपमान, (५) अर्थापत्ति और (६) अभाव । श्री प्रभाकर मिश्र अभाव को प्रत्यक्ष से ग्राह्य मानकर उसका प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव करके पांच प्रमाण मानते हैं ।(१६६) विद्यमान वस्तु के साथ इन्द्रियों का सन्निकर्ष होने से आत्मा को जो ज्ञान होता है उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है ।(१६७) लिंग से उत्पन्न होनेवाले लिंगि के ज्ञान को अनुमान कहा जाता हैं । साध्य और साधन के अविनाभाव के यथार्थ ज्ञानवाले पुरुष को एक देश उ साधन को देखने से असन्निकृष्ट उ परोक्ष साध्य अर्थ का ज्ञान होता हैं, उसे अनुमान प्रमाण कहा जाता हैं। (१६८) नित्य वेद से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान को शाब्द उ आगम प्रमाण कहा जाता हैं अर्थात् शब्द ज्ञान से असन्निकृष्ट उ परोक्ष पदार्थ में होते ज्ञान को शाब्द प्रमाण कहा जाता है ।(१६९) प्रसिद्ध अर्थ की १७०) सदृशता से अप्रसिद्ध की सिद्धि करना उसे उपमान प्रमाण कहा जाता हैं । दृष्ट पदार्थ की अनुपपत्ति के बल से जो कोई भी अदृष्ट पदार्थ की कल्पना की जाती है, उसे अर्थापत्ति कही जाती हैं।९७१) वस्तु की सत्ता के ग्राहक प्रत्यक्षादि पाँच प्रमाण जो वस्तु में प्रवृत्ति नहीं करते हैं, उसमें अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति होती हैं ।(५७२) अभाव प्रमाण का विषय 'अभाव' वस्तुरूप हैं । उस अभाव के चार प्रकार माने हैं। (१) प्रागभाव, (२) प्रध्वंसाभाव, (३) अत्यंताभाव और (४) अन्योन्याभाव ।१७३) प्रमाणो का विशेष स्वरूप प्रस्तुत ग्रंथ की श्लोक-७२ से ७६ तक की टीका में तथा “मीमांसक दर्शन का विशेषार्थ" नाम के परिशिष्ट में विस्तार से दिया गया हैं । मीमांसक दर्शन के महत्त्व के सिद्धांत : (१) अपूर्व सिद्धांत : मीमांसको का एक "अपूर्व" नाम का सिद्धांत (१७४) हैं । उसका नाम अन्य दर्शनो में कही भी सुनने को नहीं मिलेगा । यजमान यज्ञ आज करता हैं और उसका फल भविष्यकाल में मिलनेवाला है । जब फल मिलेगा, तब यज्ञ - अनुष्ठान तो उपस्थित नहीं है, तो प्रश्न होता है कि, फल किस तरह से मिलेगा ? इस विरोध का परिहार करने के लिए मीमांसको ने “अपूर्व" की कल्पना की है । उनका आशय यह है कि, अनुष्ठान से अपूर्व उत्पन्न होता है । इस प्रकार फल प्राप्ति के समय अनुष्ठान न होने पर भी, अनुष्ठान (यज्ञ) और फल के बीच अपूर्व माध्यम के रुप में काम करता हैं । मीमांसको का यह महत्त्व का सिद्धांत हैं । (२) प्रामाण्यवाद : प्रामाण्यवाद भी मीमांसको का महत्त्वपूर्ण सिद्धांत हैं । उसमें तीनों आचार्यों के विभिन्न मत प्रवर्तित है । कुमारिल भट्ट ज्ञान को स्वतः प्रकाशक मानते नहीं है । जब कि, प्रभाकर मिश्र ज्ञान को स्वत: प्रकाशक मानते हैं । मुरारि मिश्र भी ज्ञान को स्वतः प्रकाशक नहीं मानते हैं । उसकी चर्चा प्रस्तुत ग्रंथ के भाग-२ में पृ. ३५८ के उपर की है। इसलिए यहाँ उसका विचार नहीं करते हैं । 166. (षड् समु. श्लोक-७२ टीका) प्रत्यक्षमनुमानं च शब्दं चोपमित्तिस्तथा । अर्थापत्तिरभावश्च षट् प्रमाणानि मादृशाम् ।।५।। (मानमेयोदय)। 167. सत्संप्रोगे सति पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत्प्रत्यक्षम् । (मीमां.सू. १/१/४) । 168. ज्ञातसम्बन्धस्यैकदेशदर्शनादसन्निकृष्टेऽर्थे बुद्धिरनुमानम् । (शाबर भा. १/१/५) । 169. शब्दज्ञानादसनिकृष्टेऽर्थे बुद्धिः (शाबर भा. १/१/५) । 170. प्रसिद्धार्थस्य साधादप्रसिद्धस्य साधनम्। (षड्.समु. ७४) 171. अर्थापत्तिरपि दृष्टः श्रुतो वार्थोऽन्यथा नोपपद्यते इत्यदृष्टार्थकल्पना (शां.भा. १/१/५) । 172. प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते । वस्तु सत्तावबोधार्थं तत्राभावप्रमाणता ।। षड्.समु. ७६।। 173. षड्. समु. ७६ टीका (मी.श्लोक. अभाव-श्लोक २-९) । 174. यागादेव फलं तद्धि शक्तिद्वारेण सिध्यति। सूक्ष्मशक्त्यात्मकं वा तत् फलमेवोपजायते ।। (तन्त्रवार्तिक, पृ. ३६५) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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