________________
तत्त्व समीक्षा :
मीमांसक दर्शन की मुख्य तीन शाखायें हैं । (१) श्री प्रभाकर मिश्र कृत गुरुमत, (२) श्री कुमारिल भट्ट कृत भट्ट और (३) श्री मुरारि मिश्र का मिश्रमत । तीनों मतो में मतभेद दिखाई देते हैं ।
षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
श्री प्रभाकर आठ पदार्थ मानते हैं ।(१६२ ) द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, परतंत्रता, शक्ति, सादृश्य और संख्या । इन आठमें से द्रव्य, गुण, कर्म और सामान्य का स्वरूप वैशेषिको को मिलता आता है । परतंत्रता का आशय वैशेषिको के समवाय पदार्थ के साथ मिलता आता है । परन्तु वैशेषिक समवाय को नित्य मानते है और प्रभाकर नित्य नहीं मानते हैं। श्री कुमारिल भट्ट ने द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और अभाव, ये पांच तत्त्व (पदार्थ) माने हैं । नैयायिको की तरह पृथ्वी आदि नव और उसके उपरांत अंधकार तथा शब्द को भी कुमारिल भट्ट द्रव्य के रुप में मानते हैं । ( १६३) श्री मुरारि मिश्र मूलरूप से एकमेव ब्रह्म की ही सत्ता का स्वीकार करते हैं । परन्तु लौकिक व्यवहार की संगति के लिए चार पदार्थ अधिक मानते हैं ।
(१) धर्मिविशेष : जैसे कि, घटत्वादि का आधार घटादि (द्रव्य),
(२) धर्मविशेष : जैसे कि, घट के आधेय घटत्वादि (गुण),
(३) आधारविशेष : ( अनित्य आश्रय ) अर्थात् कालकृतभेद । जैसे कि, इदानीं घटः, तदानीं घटः । यहाँ कालबोधक इदानीं तथा तदानीं पद घट के अनियत आधार हैं ।
७७
(४) प्रदेशविषय : दैशिक आधार । जैसे कि, गृहे घटः, भूतले घटः, यहाँ घट का गृह और भूतल देश संबंधी अनियत आधार हैं । (१६४)
जाने
श्री कुमारिल भट्ट द्वारा प्ररुपित पाँच पदार्थो का स्वरूप “मानमेयोदय" ग्रंथ में विस्तार से दिया गया हैं । उसमें अनेकविध मतो की समीक्षा भी की गई हैं । समीक्षा में अन्यमतो के तत् तत् पदार्थों के लक्षण देकर समीक्षा की गई है । इसलिए भिन्न भिन्न मतो की मान्यता एक ही स्थान पर मिल जाती है । इस कारण से दार्शनिक अभ्यासुओं सरलता के लिए उस 'मानमेयोदय' के पदार्थ एक स्वतंत्र परिशिष्ट बनाकर प्रस्तुत ग्रंथ में (भाग-२ में) संगृहित किये गये हैं । श्री प्रभाकर मिश्र द्वारा प्रतिपादित आठ द्रव्य भी केवल मूल रूप से उसी परिशिष्ट में संगृहित किये गये हैं ।
प्रमाण विचार :
मीमांसकोने प्रमाण सामान्य का ( १६५) लक्षण इस तरह से बताया है - " अनधिगतार्थाधिगन्तृ प्रमाणम्" । पहले नहीं 'पदार्थ को बतानेवाले ज्ञान को प्रमाण कहा जाता है ।
हुए
Jain Education International
-
-
को श्रुतिमूलक मानकर मोक्ष के लिए समस्त कार्यो के फल को ईश्वर को समर्पण कर देने की बात इस तरह लिखी है। ईश्वरार्पणबुद्ध्या क्रियमाणस्तु निःश्रेयसहेतुः, न च तदर्पणबुद्ध्यानुष्ठाने प्रमाणाभावः । यत्करोषि यदश्राति' भगवद् गीता स्मृतेरेव प्रमाणत्वात् । स्मृतिचरणे तत्प्रामाण्यस्य श्रुतमूलकत्वेन व्यवस्थापनात् (अर्थसंग्रह पृ. १९६; मीमांसा न्यायप्रकाश पृ. १९७) तदुपरांत श्री प्रभाकर मिश्र और उसके अनुयायी भी ईश्वर की सत्ता मानते है । परन्तु श्रीप्रभाकर ईश्वर की सत्ता को श्रुतिमूलक वाक्यों के द्वारा प्रमाणित करते है; अनुमान ( नैयायिक तरह) से नहीं सारांश में, प्राचीन मीमांसको कर्मकाण्ड की उपादेयता अधिक मान्य करते है और पिछले मीमांसकोने ईश्वर को कर्मफल के दाता के रूप में स्वीकार किया है । 162. तन्त्ररहस्य, पृ० २०-२४ । 163. मानमेयोदयः पृ. १५९ । 164. ब्रह्ममैकम्, व्यवहारे तु धर्मिधर्माधारप्रदेशविशेषाः पञ्च पदार्था इति वेदान्ता मुरारिमिश्राश्च न्यायमाला । 165. अनधिगतार्थगन्तृ प्रमाणं इति भट्टमीमांसका आहुः । (सि० चन्द्रोदयः पृ. २०) (षड्. समु. ७१ टीका) (मानमेयोदय-प्रमाणविचार ) ।
For Personal & Private Use Only
www.jalnelibrary.org