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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
उपेक्षा की है ।" उनका यह आक्षेप निराधार है । ग्रंथकारश्री ने “पक्षपातो न मे..." द्वारा अपनी मध्यस्थता बताई है और अपने इस प्रस्तुत ग्रंथ में केवल प्रत्येक दर्शन के वाच्यार्थ को ही निरुपित किया हैं । तदुपरांत अपने "शास्त्रवार्ता समुञ्चय" ग्रंथ में वेदांत दर्शन का प्रतिपादन करके उसकी समीक्षा भी की हैं । इसलिए उन्हों ने प्रस्ततु ग्रंथ की रचना के समय वेदांत दर्शन के प्रति उपेक्षाभाव था ऐसा आक्षेप बेबुनियाद है ।
ग्रंथकार कोई भी ग्रंथ की रचना करते समय विषय विभाग के लिए निश्चित अभिगम अपनाकर अधिकृत ग्रंथ में कुछ खास विषयो की प्रधानता रखते होते हैं, ऐसा स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । इसलिए अन्य विषयो की उपेक्षा करता हैं, ऐसा आक्षेप उनके उपर नहीं कर सकते और प्रस्ततु ग्रंथकारश्री को निश्चित प्रकार के आग्रह होते तो अपने ग्रंथो को परीक्षा के सराई के उपर रखने की उद्घोषणा नहीं करते । उनका तो स्पष्ट अभिगम है कि, युक्तियुक्त वचन जिनका भी हो, वह हमको ग्राह्य हैं । ___प्रासंगिक स्पष्टता करके अब आगे बढेंगे । प्रस्तुत ग्रंथ के टीकाकारश्री ने तो वेदान्त दर्शन के विषयो का आंशिक प्रतिपादन किया ही है । इस ग्रंथ के प्रथम भाग के परिशिष्ट-१ में विस्तार से वेदांत दर्शन के पदार्थो का (अनेक ग्रंथो के आधार पर) निरुपण किया गया है । यहाँ सर्वप्रथम मीमांसक दर्शन का परिचय प्राप्त करेंगे और उसके बाद तुरंत वेदांत दर्शन का परिचय स्वरूप में निरूपण करेंगे । मीमांसादर्शन के वेष, आचारादि का निरूपण इस ग्रंथ में प्रारंभ में ही किया गया हैं ।
देवता : मीमांसक सर्वज्ञ, वीतराग, जगत्कर्ता आदि विशेषणोवाले किसी भी देवता को मानते नहीं हैं। वे कहते हैं कि... सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग, जगत्कर्ता आदि विशेषणोवाले (अन्य दर्शनो ने माने हुए) कोई भी देवता ही नही हैं, कि जिससे उनका वचन प्रमाणरूप हो ।(१५९) मीमांसको ने देवता के निषेध के लिए जो युक्तियाँ दी है, वह प्रस्तुत ग्रंथ की श्लोक-६८ की टीका में दी गई हैं।
वे कहते है कि, “अतीन्द्रिय पदार्थो के साक्षात् दृष्टा कोई उपलब्ध भी नहीं है । इसलिए नित्यवेद वाक्यों से ही अतीन्द्रिय पदार्थों का यथार्थ निश्चय होता है" ।(१६०)
उनके मतानुसार वेद अपौरुषेय है, इसलिए उसका कोई आद्य प्रणेता नहीं है । उसका कोई आद्यप्रणेता न होने पर भी अर्थ और पाठ की परंपरा अनादिकाल से अविच्छिन्नरुप से चली आ रही है । उससे ही वेद के वाक्यो के अर्थ का यथार्थ निर्णय हो जाता है । यद्यपि वेद की अपौरुषेयता की मान्यता का नैयायिक दर्शन आदि ने खंडन किया है । जैनदर्शन के स्याद्वाद मंजरी आदि ग्रंथो में भी अपौरुषेयवाद का खंडन किया गया हैं ।
मीमांसक ईश्वर को मानते है या नहीं ? इस विषय में पूर्वोत्तरवर्ती आचार्यों में बहोत विसंवाद है । उसके विषय की चर्चा श्री बलदेव उपाध्याय विरचित “भारतीय दर्शन" ग्रंथ में पृ. ३३३ के उपर की गई है । जिसका आंशिक अंश नीचे टिप्पणी में लिया गया हैं ।(१६१) 159. जैमिनीया: पुन: प्राहुः सर्वज्ञादिविशेषणः । देवो न विद्यते कोऽपि यस्य मानं वचो भवेत् ।। षड्. समु. ६८।। 160. तस्मादतीन्द्रियार्थानां साक्षाद्रष्टुरभावतः । नित्येभ्यो वेदवाक्येभ्यो यथार्थत्वविनिश्चयः ।।षड्.समु. ६९।। अतीन्द्रियाणामर्थानां
साक्षाद्रष्टा न विद्यते । वचनेन हि नित्येन यः पश्यति स: पश्यति ।। (षड्.समु. ६९ टीका ।) 161. श्री जैमिनि ऋषि के अनुसार यज्ञ से ही तत्तत् फल की प्राप्ति होती है, ईश्वर के कारण नहीं । प्राचीन मीमांसा ग्रन्थों के आधार पर ईश्वर की सत्ता सिद्ध नहीं मानी जाती, पर पीछे के मीमांसको में से श्री आपदेव तथा श्री लौगाक्षि भास्कर ने गीता के ईश्वर समर्पण सिद्धान्त
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