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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका ७५ हैं। उसके उपर सात टीकायें रची गई है । उसमें श्री वर्धमान उपाध्याय कृत "लीलावती प्रकाश" और श्री पक्षधरमिश्रकृत "न्यायलीलावती विवेक" ये दो टीकायें प्राचीन और प्रामाणिक मानी जाती हैं। श्री पद्मनाभ मिश्र ने "सेतु" नामक ग्रंथ की रचना की थी, जो द्रव्य-ग्रंथ तक ही हाल में उपलब्ध होता है । श्री शंकरमिश्र ने "कणाद रहस्य" ग्रंथ की रचना की है, जो कोई ग्रंथ की टीका नहीं है परन्तु वैशेषिक सिद्धांतो का प्रतिपादक स्वतंत्र ग्रंथ है । प्रशस्तपाद भाष्य के उपर “सुक्ति" नाम की टीका श्री जगदीशभट्टाचार्यने रची थी, जो द्रव्यग्रंथ तक हाल में उपलब्ध होती हैं । श्री मलिनाथसूरि के "भाषानिकष" ग्रंथ का वैशेषिक साहित्य में उल्लेख होता दिखाई देता है । परन्तु हाल में वह ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता है । श्री शिवादित्यमिश्र (१० वाँ शतक) का सुप्रसिद्ध ग्रंथ "सप्त पदार्थी" हैं । जिसमें वैशेषिक और नैयायिक सिद्धांतो का समन्वय किया गया है । वैशेषिक ग्रंथकारो की परंपरा में हुए श्री शंकर मिश्र ने (१) उपस्कार (कणादसूत्रो की टीका), (२) कणाद रहस्य (वैशेषिक सिद्धांतो का स्वतंत्र ग्रंथ), (३) आमोद (न्यायकुसुमांजली की) व्याख्या, (४) कल्पलता (आत्मतत्त्वविवेक की टीका), (५) आनंदवर्धन (श्री हर्षकृत “खंडनखंडन खाद्य” की टीका), (६) कंठाभरण (न्यायलीलावती की व्याख्या), (७) मयूख (चिंतामणी की टीका), (८) वादिविनोद (वादविषयक मौलिक ग्रंथ), (९) भेदरत्न प्रकाश (न्याय-वैशेषिक के द्वैत सिद्धांत का प्रतिपादन और श्री हर्ष के खंडन ग्रंथ का खंडन करनेवाला मौलिक ग्रंथ ।) रचे थे । श्री विश्वनाथ न्यायपंचानन के न्याय - वैशेषिक विषयक दो ग्रंथ हैं । (१) भाषा परिच्छेद, जिसमें १६८ कारिकाओं द्वारा वैशेषिक सिद्धांतो का प्रतिपादन किया गया हैं, (२) न्यायसूत्रवृत्ति । जिसमें न्यायसूत्रो की सरल व्याख्या की गई हैं। श्री विश्वनाथ न्याय पंचानने (अपने शिष्य राजीव के उपकार के लिए) "न्यायसिद्धांतमुक्तावली" ग्रंथ की रचना की थी। वर्तमान में तर्कसंग्रह के अनंतर इस ग्रंथ का अभ्यास होता है । इस ग्रंथ के उपर दिनकरी और रामरुद्री दो प्रसिद्ध टीकायें है । वैशेषिक परंपरा में हुए श्री अन्नंभट्टने “तर्कसंग्रह" नाम के ग्रंथ की रचना की थी, हाल में वह सर्वाधिक प्रसिद्ध है, उसके उपर न्यायबोधिनी, पदकृत्य, नीलकंठी, भास्कारोदया, सिद्धान्तचंद्रोदय, न्यायशेखरी इत्यादि अनेक टीकायें उपलब्ध हैं। वैशेषिक दर्शन का अल्प परिचय पाकर अब मीमांसक दर्शन का परिचय प्राप्त करेंगे । मीमांसक दर्शन : वेद दो भाग में विभक्त है । कर्मकांड और ज्ञानकांड । कर्मकांड का विषय यज्ञ-यागादि की विधि तथा अनुष्ठान का वर्णन है । ज्ञानकांड का विषय जीव, जगत और ईश्वर का स्वरूप तथा उनके परस्पर के संबंध का निरूपण है । आपाततः दिखाई देते विरोधो का परिहार करने के लिए मीमांसा की प्रवृत्ति होती हैं । मीमांसा के दो प्रकार हैं । कर्ममीमांसा और ज्ञानमीमांसा । कर्म विषयक विरोधो का परिहार करे वह कर्ममीमांसा और ज्ञानविषयक विरोधो का परिहार करे वह ज्ञानमीमांसा । कर्ममीमांसा या पूर्वमीमांसा के नाम से प्रसिद्ध दर्शन “मीमांसक दर्शन" कहा जाता है और ज्ञानमीमांसा या उत्तरमीमांसा के नाम से प्रख्यात दर्शन “वेदांत दर्शन" कहा जाता हैं । प्रस्तुत ग्रंथ में मीमांसक दर्शन का प्रतिपादन किया गया हैं । परन्तु वेदांत दर्शन का निरूपण नहीं किया गया है । इसलिए "षड्दर्शन समुञ्चय" के हिन्दी विवेचन के प्रस्तावना के कुछ लेखक प्रस्तुत ग्रंथ के ग्रंथकारश्री के उपर आक्षेप करते हैं कि, "उन्होंने जैनदर्शन को छः दर्शनो के अंदर समाविष्ट करने के लिए वेदान्त दर्शन की कमी कर डाली है अर्थात् पू.आ.भ.श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी ने जानबूझकर वेदान्त दर्शन की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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